Wednesday, May 17, 2017

वो यम नहीं बरेठा था

-वीर विनोद छाबड़ा 
मेरे साथ छोटी-मोटी दुर्घटनायें और टूट-फूट लगी रहती हैं। दो साल इन्हीं दिनों की बात है।
आसमान पर घने बादल थे। मैं घर लौट रहा था। इंद्र देवता से मना रहा था, दस मिनट रुक जाओ। तब तक मैं घर पहुंच जाऊंगा। फिर जी भर कर बरसना। लेकिन उन्होंने मेरी इल्तज़ा पर ध्यान नहीं दिया। बरस ही पड़े। तब मैं घर से करीब तीन किलोमीटर दूर था।
मैंने स्कूटी रोकी। वहां एक कपड़े इस्त्री करने वाले बरेठे का डेरा था। धूप-पानी से बचने के लिए ऊपर मोटे पॉलीथीन की चद्दर वाली छत। पुरानी होने के कारण उसमें चार-पांच जगह छेद थे। पानी टपक रहा था। फिर भी बारिश से बचने के लिए उसमें कई लोग घुसे हुए थे। मेरे लिए उसमें कतई जगह नहीं थी।
मैंने आस-पास अन्य आश्रय के लिए नज़र दौड़ाई। सड़क पार कुछ दुकानें और उन पर शेड। सुरक्षित स्थान। कुछ लोग खड़े भी वहां थे। मैंने पीछे मुड़ कर देखा। खाली सड़क थी।
मैंने स्कूटी मोड़ी ही थी कि जाने कहां से बलां की रफ़्तार से एक बाईक आई और उसने मेरी स्कूटी को बीच में ठोंक दिया। मैं उछला कर गिरा। चारों चित्त। मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया। कुछ पल के लिए लगा मैं परलोक में हूं। किसी ने सहारा दे बैठाया और फिर हाथ खींच कर मुझे खड़ा कर दिया। तब तक मैं उसे दूसरे लोक का ही वासी यम समझता रहा। वो बोला, शुक्र है कि आप बच गए।
तभी मैंने ध्यान दिया कि अरे यह यम नहीं। कोई मनुष्य है देवता के रूप में। याद आया, वो बरेठा था। कई और लोग भी जमा हो गए। मूसलाधार बारिश जारी थी। किसी ने मेरी स्कूटी किनारे खड़ी कर दी। दूर मीटर दूर जा गिरा हेलमेट और घड़ी उठाई।
एक्सीडेंट के शॉक मैं बाहर नहीं था। बांह पकड़ कर बरेठा अपनी झोंपड़ी में ले आया। शुक्र है जिस्म की सारी हड्डियां सलामत थीं। हां, खाल ज़रूर चार-पांच जगह से छिल और फट गयी थी। सर में पीछे दर्द हो रहा था। हाथ लगाया तो पाया की मोटा सा रोड़ बन गया है। स्कूटी को देखा। मुझसे ज्यादा चोट लगी है। बरेठे ने एक बीमार सी टूटी कुर्सी पर बैठा दिया। बारिश से भीगा होने के कारण कंपकंपी छूट रही थी। जाने कौन कहीं से चाय ले आया। चाय तो वैसे भी मेरी जान है। मैंने उसे फूंक मार कर फटा-फट सुड़ुक लिया। मैंने खुद को बेहतर महसूस किया। दो-एक ने घर छोड़ने का ऑफर दिया।
लेकिन मैंने उनका अनुरोध क्षमा मांगते हुए अस्वीकार कर दिया। अपने मित्र सत्य प्रकाश को मोबाईल किया। वो मेरी स्कूटी का डॉक्टर है, मुझसे करीब बीस साल छोटा।
दस मिनट नहीं गुज़रे थे कि सत्य प्रकाश कार लेकर हाज़िर हो गया। स्कूटी उसने वहीं अपने एक जानने वाले के घर पर रखवा दी। पास ही चौरसिया क्लीनिक ले गया। दैवयोग से डॉक्टर मिल गए। उन्होंने कम्पाउंडर को हिदायत दी - मेरी मरहम-पट्टी करके और टिटनेस का टीका लगा देना। सत्यप्रकाश ने फिर मुझे घर छोड़ दिया।
उस घटना को दो साल गुज़र चुके हैं। इस बीच मैं हफ़्ते-दस दिन में जब भी उधर से गुजरा, एक क्षण के लिए रुका। बरेठे से दुआ-सलाम की। आगे बढ़ गया।
लेकिन पिछले हफ्ते से वो बरेठा वहां नहीं है। नगर निगम ने अवैध कब्जों को हटा दिया है। उसी में उस बरेठे का वो छोटा सा डेरा भी शामिल था।
आस-पास तलाश किया। कहीं दिखा नहीं। इधर-उधर पूछा भी। किसी को जानकारी नहीं है कि किधर गया। लेकिन वो जायेगा कहां? रोज़ी-रोटी के लिए किसी सुरक्षित गली में घुस गया होगा। इन्हें तो हर जगह बिज़नेस मिल जाता है।
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