Monday, May 29, 2017

भक्तों से डरो!

-वीर विनोद छाबड़ा
आज जेठ महीने का तीसरा बड़ा मंगल है। अपने शहर लखनऊ में जेठ का हर मंगल बड़े मंगल के रूप में मनाया जाता है। शहर में करीब चार हज़ार भंडारे सजते हैं। प्रसाद के रूप में आलू-पूड़ी आदि लोग ग्रहण करते हैं। इस दिन शहर में कोई भूखा नहीं रहता। बाहर से आये मेहमान भी इसी प्रसाद से पेट भरते हैं।
हमने छत्तीस साल आठ महीने बिजली बोर्ड की नौकरी में एक से बढ़ एक महान अफसरों के मातहत काम किया और दूसरे तमाम अफसरों को भी देखा। सबके सब भीरू भाई। उनके टेबुल ग्लॉस के नीचे उनके आराध्यदेव की तस्वीर ज़रूर लगी देखी। ऑफिस आकर श्रद्धानुसार दो से दस मिनट तक पूजा-पाठ में लगाया। सख्त अफसर के कमरे में प्रवेश करने से पूर्व मातहत अफ़सर को बजरंग बली का स्मरण करते देखा।
अफसरों को भगवान के नाम से डरते देखा। हमें याद है कि एक बार दो-तीन बजरंग भक्त बाबूओं के मन में हूक उठी कि बड़े मंगल पर भंडारा आयोजित किया जाए तो विभाग पर छाये संकट के बादल टल जायेंगे। चल पड़े चंदा बटोरने। एक घनघोर नास्तिक अफसर ने चंदा नहीं दिया। यह बात उन्होंने अपने साथियों से डंके की चोट पर शेयर की।
एक धर्मभीरू मित्र ने समझाया - अरे दे देते तो अच्छा रहता। अब पाप चढ़ेगा तुम पर।
वो नास्तिक अफ़सर बोले - देखता हूं कि मेरे चंदा न देने से क्या पाप चढ़ता है मुझ पर।
तब दूसरे साथी ने समझाया - देखिये, ठीक कहते हैं आप। कोई पाप नहीं चढ़ेगा। आपको कोई फ़र्क भी नहीं पड़ेगा। बजरंग बली को भी नहीं पड़ेगा। लेकिन भक्तगण को फ़र्क पड़ सकता है। इनसे टकराना महंगा पड़ सकता है। जीना हराम कर देंगे। काम नहीं करेंगे। बात-बात में मीन-मेख निकाल कर काम की स्पीड में रुकावट पैदा करेंगे। और शायद आपके निजी काम मसलन पे-बिल, एरियर बिल, टूर के टीए-डीए बिल भी लटकायेंगे। और मेडिकल लीव या अर्नलीव
बात पूरी हुई नहीं कि वो नास्तिक मित्र उठ कर बाहर निकल गए। हम लोग समझे कि नाराज़ हो गए हैं।
लेकिन बाद में पता चला कि उन्होंने सबसे ज्यादा चंदा दिया। और ख्याल रखा कि आयोजन में कोई कमी न होने पाये। सुना है ऐसे आयोजनों पर उनकी दृढ़ आस्था भी हो गयी है। वो इन्हें सांस्कृतिक आयोजन की संज्ञा देते है। स्वयं भंडारे में लंबा लाल टीका लगा कर बैठते हैं और भक्तजन को प्रसाद बांटते नज़र आते हैं। निजी कामों से संबंधित उनकी फाईल नहीं रुकती है। भक्तजन स्वयं भाग-दौड़ कर उनके सारे काम कराते हैं।
अब ये मिथक बन गया है कि बजरंग बली का प्रोटेक्शन है तो बड़े से बड़ा संकट भी दुम दबा कर भाग खड़ा होता है। कोई डरा नहीं सकता। भूत पिशाच निकट नहीं आवा, महावीर जब नाम सुनाया। यही कारण है कि सबसे ज्यादा भंडारे दफतरों के आस-पास ही लगते हैं, चाहे सरकारी हों या प्राईवेट। तमाम अफसरान रुचि लेते दिखते हैं कि आयोजन ठीक-ठाक निपट जाये। इसी में सबको अपना भविष्य उज्जवल दिखता है।
कई कारपोरेट घराने भी भंडारों को अब तो प्रायोजित करने लगे हैं। शीघ्र ही श्रेष्ठ भंडारे को पुरुस्कृत करने की योजना भी चल सकती है।
अच्छी बात है। इससे प्रतिस्पर्धा उत्पन्न होगी। क्वालिटी और सफाई के प्रति जागरूकता बढ़ेगी।
काश! यह भंडारे सारा साल चलें। और बेहतर हो कि मेहनतकश लोगों की झुग्गी-झोंपड़ियों वाली बस्तियों के करीब हों भंडारे। कम से कम गरीब भूखा तो नहीं सोयेगा। और धरती पर तूफ़ान भी नहीं आएगा।
जै जै बजरंगबली!
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