Saturday, May 6, 2017

पढ़ा हुआ कभी बेकार नहीं गया

- वीर विनोद छाबड़ा 
वो हमारे पढ़ने के दिन थे। राजनीति शास्त्र में हमने दो बार एमए किया। इस दौरान हमने कार्ल मार्क्स को कई बार पढ़ा। वो दौर भी कुछ ऐसा था कि हर दूसरा-तीसरा कंधे पर झोला टांगने वाला बंदा मार्क्स के दर्शन पर पक्ष-विपक्ष में बहस करते मिल जाता था। लेकिन दुर्भाग्यवश  है कि परीक्षा में मार्क्स के दर्शन पर कभी कोई सवाल नहीं पूछा गया।
हां, तो हम बता रहे थे कि राजनीतिशास्त्र में डबल एमए के बाद और नौकरी के बावजूद हमने मॉर्निंग क्लासेज में एमए समाजशास्त्र में एडमिशन ले लिया, इस लालच में कि शायद सरकार भविष्य में तीन एमए करने वालों को कोई विशेष भत्ता दे दे। यहां भी हमने मार्क्स को समाजशास्त्री के रूप में पढ़ा।
मॉर्निंग क्लासेज थीं और वहीं से सीधे ऑफिस। लेकिन हम कभी कभी ही जाते थे। बिलकुल आधे मन से पढ़ रहे थे। नतीजा यह हुआ कि एमएम प्रथम वर्ष की परीक्षा में नंबर मुहाने पर अर्थात पूरे तृतीय श्रेणी वाले। अगर फ़ाईनल में यही परफॉरमेंस रही तो थर्ड डिवीज़न पक्की थी। हमने खुद पर लानत भेजी। तय किया कि फ़ाईनल में कुछ कर गुज़रेंगे। एग्जाम का  टाईम आया।
उन्हीं दिनों हमारे बिजली विभाग में भी अपर डिवीज़न की परीक्षा घोषित हो गयी। दोनों एग्जाम में सिर्फ़ एक दिन का अंतर। हमने तरजीह विभाग के एग्जाम को दी। लाईफ़ टाईम चांस था। पास होने का मतलब सर्विस में कम से कम अट्ठारह साल का लीप।

एग्जाम में यूनाइटेड नेशंस पर अंग्रेज़ी में निबंध लिखने को आया। हम उछल पड़े - पढ़ाई काम आ गयी। पोलिटिकल साइंस में एमए करने के दौरान इंटरनेशनल रिलेशंस और इंटरनेशनल आर्गेनाइजेशन इन दो विषयों पर हमने अच्छे मार्क्स पाये थे। रंग डाले थे कई पन्ने। हिंदी में हमने २० सूत्रीय कार्यक्रम पर निबंध लिखा। एमर्जेन्सी का दौर था। एमए सोशियोलॉजी में हमारा एक सब्जेक्ट था - प्लानिंग। पढाई एक बार फिर काम आई। हमने २० सूत्रीय कार्यक्रम को अच्छे नियोजन का रूप दे दिया।
विभागीय परीक्षा समाप्त हुई। एक दिन के अंतराल पर सोशियोलॉजी में एमए फ़ाईनल की परीक्षा। मन विचलित था। सारी ऊर्जा हमने विभागीय परीक्षा में खर्च कर दी थी। हमने इरादा किया नहीं देंगे परीक्षा। अगले साल देखी जाएगी। मेडिकल लगा देंगे। लेकिन रात नींद न आई। हम सुबह उठे और चल दिए एग्जाम देने। देखा जायेगा। परीक्षा दे दी। हर पेपर में खूब लिखा। कुछ किस्से कहानियों के उदाहरण सविस्तार दे डाले, यह सोच कर कि परीक्षक शायद हमारे ज्ञान से प्रभावित हो जाए।
अंतिम दिन इंटरव्यू था। पूरे सौ नंबर का। हम हाज़िर हुए। दो विद्वान बैठे थे। नाम हमें याद नहीं। उनमें से एक के बारे में हमें जानकारी थी कि वो मार्क्स के बहुत बड़े प्रेमी हैं। हज़रतगंज में हमने उन्हें अक्सर कंधे झोला लटकाये टहलते देखा था। हमें याद नहीं कि उन्होंने क्या प्रश्न पूछा। लेकिन हमने उसमें कार्ल मार्क्स का उल्लेख कर दिया। मास्टरजी चौंक गए। उन्होंने पूछ लिया - कार्ल मार्क्स के सामाजिक दर्शन के बारे में और क्या क्या जानते हैं?
हमने मन ही मन खुद को शाबाशी दी - बहुत अच्छे।

हमने भी मौके का पूरा पूरा फ़ायदा उठाया। लेफ्ट-राईट-सेंटर, जितना भी जानते थे मार्क्स के बारे में, सब उड़ेल दिया। हमसे अगला प्रश्न पूछा गया - मार्क्स के बारे में इतना कहां से जाना? समाजशास्त्र के कोर्स में तो इतना है नहीं।
हमने बताया - पोलिटिकल साइंस में हमने एमए और एमए स्पेशल किया है। मार्क्स हमारा प्रिय सब्जेक्ट ही नहीं प्रिय पात्र भी थे।
हमसे कहा गया, जाईये। महीने बाद नतीजा आया। हमें यकीन ही नहीं आया कि हम गुड सेकंड डिवीज़न में पास घोषित किये गए। सबसे ज्यादा नंबर इंटरव्यू में ही थे, अस्सी परसेंट। 
छह महीने बाद विभागीय परीक्षा का नतीजा आया। हम उसमें भी पास हो गए। करीब डेढ़ हज़ार परीक्षार्थियों में हमारा पांचवां नंबर था और सिर्फ इतनी ही वैकेंसियां थीं। निसंदेह हमने कठिन परिश्रम किया था और साथ में भाग्य ने भी हमारा जम कर साथ दिया था।
लेकिन हम इस नतीजे पर भी पहुंचे कि दिल से पढ़ा हुआ कभी न कभी काम ज़रूर आता है।

नौकरी के दौरान भी हमारा यही फंडा रहा। बाहर से आने वाली बेशुमार चिट्ठियों को हमने सरसरी निगाह से देखा, यह सोच कर कि कुछ न कुछ तो दिमाग में रह ही जायेगा। और इसी के सहारे हमने छत्तीस साल और आठ महीने का कठिन सफ़र सफलतापूर्वक तय किया। 
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