Saturday, November 7, 2015

इट हैपंस ओनली इन, इन इंडिया!

- वीर विनोद छाबड़ा
कई साल पहले की बात है। अस्सी का दशक था वो। ऑनलाईन की तो दूर दूर तक आहट नहीं थी। लिहाज़ा लेख देने अख़बार के दफ़्तर में खुद जाना पड़ता था।

एक नामी अख़बार में फ़ीचर का काम एक मैडम देख रहीं थीं। बहुत लायक थीं। स्वभाव की भी बहुत मृदु। अच्छी पारखी और मनीषी। पलक भर में ही भांप जातीं थीं कि लेख प्रकाशन योग्य है कि नहीं।
हमारी हफ़्ते में एक-दो दफ़े उनसे भेंट हो ही जाती थी।
हमने लेख दिया।
उन्होंने सफ़े उल्टे-पुल्टे और पेंडुलम की तरह सर हिला दिया।
मतलब हां। दिल बाग़ बाग़ हुआ जाए रे। हमें बैठने का पूरा मौका ही नहीं मिलता था। तशरीफ़ कुर्सी के पेंदे से लगी नहीं कि चला-चली के हालात पैदा हो जाते।
अब यह बात दीगर थी कि उसी वक़्त चाय आई। मैडम ने औपचारिकतावश चाय पूछी और हम पसड़ गए। चाय हमारी सदैव से कमजोरी रही है। किसी ने गुस्से में भी चाय ऑफर की तो हमने इंकार नहीं किया। और फिर ओवर ए कप ऑफ़ टी बड़ी से बड़ी समस्याएं हल हो गयीं। न जाने कितने विश्व युद्ध टल गए।
बहरहाल, एक बार हम कोई हफ़्ते भर के अंतराल के बाद गये।
देखा, मैडम की जगह कोई नई मैडम बैठी हैं। सुंदर चमकती हुई वेश-भूषा और सलीकेदार सज-धज भी। 
हमने उनसे पूछा - वो जो फलां-फलां मैडम यहां बैठती थीं वो कहां मिलेंगी?
उन्होंने हमें सर से पांव तक देखा और कहा - यहीं आपके सामने।
हम चौंक गए। मोटे लेंस वाले चश्मे के पीछे से हम उन्हें उल्लू की तरह आंखें फाड़-फाड़ कर देखने लगे।
हमारी इस मुद्रा पर वो खिलखिला कर हंस दीं। मोती जैसे फर्श पर गिर कर खनखनाये हों।

Friday, November 6, 2015

चोर चोरी से जाए, हेरा-फेरी से नहीं।

- वीर विनोद छाबड़ा
हमारे एक जॉइंट सेक्रेटरी रहे हैं मो.उज़ैर। भले अधिकारी थे। उन दिनों हम इस्टैब्लिशमेंट में पोस्ट थे। सबकी रग रग से वाकिफ़। इसी वज़ह से थोड़ी बहुत जासूसी भी डीएनए में घुस गयी थी।
  
एक दिन उज़ैर साहब ने हमें सुबह-सुबह बुलाया। टेबुल लैंप की ओर ईशारा किया - रोज़ सुबह बल्ब फ्यूज़ मिलता है। इलेक्ट्रीशियन ने सारी लाईन देख ली हैं और बल्ब होल्डर भी। सॉकेट भी चेक किया है और प्लग भी। सब सही है। फिर क्यूं बल्ब फ्यूज़ होता है? केयरटेकर भी हैरान है। आप कुछ रोशनी डालो।
हमने उनसे पूछा - सुबह सुबह कौन आता है आपके कमरे में।
उन्होंने बताया - हमारा चपरासी.... ।
उस ज़माने में लाल रंग के करेक्टिंग फ्लूइड का चलन था जो स्टैंसिल पर टाईप हो गए ग़लत शब्द पर लगाया जाता था। हमने बल्ब पर लाल रंग के करेक्टिंग फ्लूइड का निशान लगा दिया- अब चोर पकड़ा जायेगा।
दूसरे दिन सुबह सुबह उज़ैर साहब का बुलावा आ गया। हम फ़ौरन हाज़िर हुए। देखा, बल्ब फ्यूज़।
हमने फ्यूज़ बल्ब टेबुल लैंप से बाहर निकाला। लाल निशान नहीं था। ज़ाहिर था कि किसी ने नया बल्ब निकाल फ्यूज़ बल्ब लगाया है। तय है कि यह चोरी  है।
हमने कहा - सुबह सुबह सबसे पहले आपके कमरे में एक आदमी आता है। आपका चपरासी। अच्छी तरह जानते हैं हम उसे। खाने-पीने को भरपूर है उसके पास। शायद सबसे धनी चपरासी। दूसरों को ब्याज पर उधार भी दिया करता है। लेकिन आदतन चोरी करता है। सुख मिलता है दूसरों को दुखी करके। पूछताछ आप कर लें।
थोड़ी ही देर बाद उज़ैर साहब ने हमें बुलाया। चोर पकड़ा गया। वही है सबको दुखी करने वाला। देखो ट्रांसफर नहीं करना। जहां जायेगा वहां दुखी करेगा। हमें तो दुःख सहने की आदत है।
उन्होंने हमारा शुक्रिया अदा किया। हमने भी अपनी पीठ थपथपाई। केस सॉल्व।
हो गए हैं इस घटना को ३२-३३ साल। वो चपरासी रिटायर हो चुका है। हम भी रिटायर हैं। मिलता है, कभी-कभी। कोई न कोई बहाना बना कर कभी पचास तो कभी सौ रूपये मांगता है। लेकिन हम नहीं देते। हम अच्छी तरह जानते हैं कि वो आदतन भिखमंगा भी है।
एक दिन अस्पताल में मिल गया। रोने लगा - दवा लेनी है। पैसे कम पड़ गए हैं। वाईफ़ भर्ती है।

Thursday, November 5, 2015

दौड़ते रहना ज़रूरी है।

- वीर विनोद छाबड़ा
उन दिनों हम बच्चे थे। हमारे घर एक बाबा आये। घनी और सफ़ेद लंबी दाढ़ी। और घुटने तक लटकते बाल। गेरुआ वस्त्र।
बाबा को हमारे एक रिश्तेदार लेकर आये थे - ये बहुत पहुंचे हुए बाबा हैं। इनका कहा कभी झूठ नहीं हुआ। मस्तक की लकीरों से भूत-वर्तमान और भविष्य पढ़ लेते हैं।
हमें देखते ही बाबा बोले - यह अति वीर बालक है। ऊर्जावान है। अपार विद्या अर्जित करेगा। बहुत उच्च पद पर आसीन होगा। देश का नाम रोशन करेगा।
मां बहुत खुश हुई। बाबा को गर्मा-गर्म बेसन का हलवा खिलाया। दक्षिणा के तौर पर उन्हें सवा रूपया दिया। 
बहरहाल, बाबा के इस कथन से हमें घर में स्पेशल स्टेटस प्राप्त हो गया। उन दिनों हम सातवें दर्जे में थे। संयोग से कुछ दिनों बाद छमाही परीक्षाफल घोषित हुआ। हम प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। मां की ख़ुशी की सीमा न रही - बाबा की भविष्वाणी सच होनी शुरू हो गयी।
इधर हम भी निश्चिंत हो गए। बाबा के कथनानुसार हमारा बड़ा आदमी बनना तय है। क्या पढ़ना और क्या लिखना? दिन भर इधर-उधर आवारा गर्दी। जेब में हर वक़्त कंचे। कभी गुल्ली-डंडा कभी क्रिकेट। कबड्डी के भी शौक़ीन। आये दिन कपड़े फटना और चश्मे का टूटना। इसी बहाने कैसरबाग में बैजल चश्मेवाले की दुकान पर भागना।
नतीजा आठवीं कक्षा में एक विषय में फेल होने के कारण प्रमोशन मिला। यानि फेल होते-होते बचे। रिजल्ट कार्ड पर प्रमोटेड लिखा होना बड़ी ख़राब बात मानी जाती थी।
सिफ़ारिश से विद्यांत कॉलेज में एडमिशन मिला। लेकिन हम न सुधरे। दिमागमें घुसा हुआ था कि बड़ा आदमी तो बनना तय है। एक बार हाई स्कूल में फेल गए और फिर इंटरमीडिएट में। घर की प्रोग्रेस दो साल पीछे हो गयी। अब मां को लाल में अवगुण दिखने लगे। पिताजी तो पहले से ही विरोध करते थे बाबाओं को।
इधर हमें भी अक़्ल आई। पढ़ने पर खुद को फ़ोकस किया। इंटर बीए किया। फिर एमए करने यूनिवर्सिटी पहुंचे। सुंदर-सुंदर बालिकायें देख कर मन ललचाया। हस्तरेखा विज्ञान की एक पुस्तक ले आये। फ़र्ज़ी ज्योतिष बन लड़कियों के हाथ देखने शुरू किये।
उस ज़माने में हर लड़की का प्रथम और अंतिम सवाल यही होता था कि विवाह का योग है कि नहीं। उस दौर की एक और विशेषता होती थी कि लड़की रंग-रूप और कद-बुत से कैसी ही क्यों न हो, ९९% का ब्याह हो ही जाया करता था।
लेकिन हम अपने भविष्य को लेकर हमेशा आतंकित रहे। क्या होगा आगे? नौकरी मिलेगी या नहीं?
भले ही हम द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण होते रहे, लेकिन थे हम औसत दर्जे के विद्यार्थी। कभी-कभी हमें खुद पर आश्चर्य होता था - यार, पेपर तो बकवास दिया था। पास कैसे हो गए?

Wednesday, November 4, 2015

लंगर वाली दाल।

- वीर विनोद छाबड़ा
जबसे अरहर महंगी हुई है हमें तरह-तरह की दालें खाने का मौका मिल रहा है। कभी मोठ तो कभी छोले और कभी साबूत मूंग की दाल। लौकी कभी नहीं सुहाई। लेकिन चने की दाल में घुली हुई बहुत अच्छी लगती है।

पिछले दो महीनों में इतनी दालें खाने और देखने मिलीं कि हम हैरान हो गए। यार, हमें तो मालूम ही न था कि दालों की इतनी बड़ी रेंज है। अरे, अरहर की दाल, तू पहले इतनी महंगी क्यों न हुई?
कई दालें तो हमने पहली बार खायीं। अभी तक हमने इनका नाम ही सुना था।
आज लंगर वाली दाल बनी। पहली बार उत्कंठा हुई जानने कि यह काहे की दाल है? मेमसाहब ने बताया कि काले उड़द और चने की दाल मिक्स करके बनती है यह।
लंगर वाली दाल के नाम पर याद आती है गुरूद्वारे की। साठ के दशक में अक्सर यही दाल बंटती थी लंगर में। घर में जब कभी यह दाल बनती तो यही कहते थे - लंगर वाली दाल।
क्या ज़माना था वोछटी क्लास से लेकर नवीं क्लास तक का। पहले चंदर नगर गुरद्वारा और फिर चारबाग़ का बड़ा गुरुद्वारा। गुरुपर्व के दिनों में बड़े दिल से रातभर 'कार सेवा'। चाहे सर्दी हो या गर्मी। सब्ज़ी काटना। दाल साफ़ करना। बेली हुई रोटियां को बहुत बड़े तवे पर डालना। सामान इधर से उधर रखना। कोई बड़ा बुज़ुर्ग डांट देता था तो आंसू टपक पड़ते थे। लेकिन जब वो 'पुत्तर जी' कह कर सर पर हाथ फेर देता तो फिर न कोई शिकवा और कोई शिक़ायत।
फिर अगले दिन दोपहर बारह के आसपास शुरू हो जाता था लंगर। सेवादार बन जाते। कभी बाल्टी में दाल भर कर पूछते चलना - दाला, दाला, दाला। या फिर रोटियां लेकर हरेक से पूछना - परशादा, परशादा, परशादा
कभी भीड़ का हिस्सा बन कर लंगर भी खूब खाया है। एकदम से भीड़ छोड़ी जाती थी खाने के लिए। कई बार गिरे। चोट भी खायी। कोई उठाने तक को नहीं आया कभी। सभी को अपनी-अपनी फ़िकर। अपने जिस्म को खुद ही उठाना पड़ा। कपड़े झाड़-पोंछ कर जा बैठे लंगर खाने।

Tuesday, November 3, 2015

स्टेशन के सामने रहना, नफ़ा कम नुक्सान ज्यादा।

-वीर विनोद छाबड़ा
आप रेलवे स्टेशन के सामने या आजू-बाजू रहते हैं। मुबारक़ हो। हम तो २२ साल रहे हैं। रेलवे स्टेशन के सामने मल्टी स्टोरी बिल्डिंग में। बचपन से जवानी तक के बेहतरीन साल।

हमारी ख़ुशक़िस्मती का आलम यह रहा कि सामने उत्तर रेलवे और दायें बाजू छोटी लाईन अर्थात पूर्वोत्तर रेलवे और खिड़की से साफ़ साफ़ दिखता उसका क्लॉक टॉवर। जब तक हम वहां रहे, रिस्ट वाच या टेबुल क्लॉक की हमें ज़रूरत नहीं पड़ी।
सोने पे सुहागा यह कि दस कदम आगे और चले नहीं कि राजकीय बस अड्डा। कानपुर, गोरखपुर, वाराणसी और हरदोई-मुरादाबाद-सीतापुर की तरफ़ कहीं भी जाना हो बसें हर वक़्त हाज़िर। इसके अलावा भी सुविधायें। सामने ही सिटी बस अड्डा। घर से निकले नहीं कि रिक्शा-तांगा भी हाज़िर। कभी इंतज़ार नहीं करना पड़ा।
हमने तो बरसों मॉर्निंग वॉक की है रेलवे प्लेटफॉर्मों पर। सुबह-सुबह मुंह उठाया और चल दिए। एक नंबर प्लेटफॉर्म के पार्सल ऑफिस से शुरू हुए और गदहा लाईन के आख़िरी छोर तक। और फिर रिटर्न बैक। यह क़वायद तीन-चार बार होती। हम लोग इसे मॉर्निंग वॉक नहीं, शंटिंग बोलते थे।
रेल हमारी नस-नस में थी, उन दिनों। हज़रतगंज में टहलना आम आदमी के लिए गंजिंग थी लेकिन हमारे लिए शंटिंग।
हम तिमंजिले पर रहा करते थे। दोनों स्टेशनों का नज़ारा साफ़ साफ़ दिखता था। स्टेशन से निकलती भीड़ देख कर बता देते थे कि गंगा-जमुना है या पंजाब मेल या गोंडा-गोरखपुर एक्सप्रेस। कहीं जाना होता था तो पंद्रह मिनट पहले निकलते। पांच मिनट नहीं लगते थे कि प्लेटफॉर्म पर हाज़िर।
मगर स्टेशन के सामने रहने के नुकसान भी कम नहीं थे। मुसीबत ही मुसीबत।
रात-बेरात खट-खट हुई। दरवाज़ा खोला। धक्का देते हुए आधा दर्जन बच्चों के साथ धड़धड़ा कर अंदर। ट्रेन चार घंटा लेट है। इतनी दूर चौक लौट कर कहां जायें। सोचा यहां आप ही के घर विश्राम कर लिया जाए। हाय हाय चार बज गया है। थोड़ा सो लिया जाए..... ट्रेन रात दो बजे छूटनी है। इतनी रात गए नक्खास से रिक्शा-तांगा कहां मिलता है बहनजी। मिल भी जाए तो ख़तरा कौन मोल ले? छोटे छोटे बच्चे हैं। इसलिए अभी आ गए.ट्रेन लेट आई है। इस ठंड में इतनी दूर महानगर कौन जाये? बच्चे साथ न होते तो चले जाते।

Monday, November 2, 2015

यह धुआं धुआं सा क्यों है मेरे भाई?

-वीर विनोद छाबड़ा
पड़ोसी बहुत सफ़ाई पसंद हैं। रोज़ की रोज़ सफ़ाई। और कूड़ा फूंक दिया घर के सामने ही। बहुत समझाया कि प्रदूषण का ख्याल रखो। सफाई कर्मी रखो। मगर कभी कान पर जूं न रेंगी। मनमानी करेंगे शान से। दुनिया जूते
की नोक पर।
बंदा ठहरा अस्थमा का मरीज़। अन्य नाना प्रकार की व्याधियों से भी पीड़ित। खुद को घर में क़ैद कर रखा है। यह सब सिगरेट की देन है। तीस साल बाद होश तब आया जब सिगरेट ने उसे पीना शुरू किया। शुक्र है सीधी-साधी पत्नी ने समय रहते आतंकी स्वरूप धर लिया, वरना तस्वीर बन कर टंगा होता दीवार पर।  
बहरहाल, बंदे की पत्नी पड़ोसी के कूड़ा जलाओ अभियान के विरुद्ध जब-तब मोर्चा लेती रहती है। लेकिन सब बेअसर। उलटा मोहल्ला भर टैक्स-फ्री मनोरंजन का लुत्फ़ उठाता है। थक-हार कर बंदा सुबह अपने खिड़की-दरवाज़े बंद रखता है।
मगर आज रस्म भी और रिवाज़ भी। दीवाली का मौका है। पड़ोसी ने सुबह-सुबह साल भर का जमा कूड़ा निकाला। लाॅन-आंगन की सूखी घास, रद्दी काग़ज, प्लास्टिक का टूटा-फूटा सामान, घिसा-फटा साईकिल का टायर, ऐतिहासिक फर्नीचर के अवशेष, फटे-पुराने जूते इसमें शामिल थे। आदतन फूंक दिया, वहीं घर के सामने। नतीजा- भयंकर बदबूदार और रसायनी धुआं ही धुआं। घुस गया दर्जन भर घरों में।
बंदे का घर भी नहीं बचा। बंद खिड़की-दरवाजों की महीन दरारों की मार्फ़त फैल गया। अस्थमा का अटैक पड़ गया। बेतरह खांसी और सांस लेने में दिक्कत।
आतंक की पर्याय पत्नी को मानो टेलर मेड पिच मिल गयी। पड़ोसी को चुनींदा असंसदीय शब्दों के बाणों से बेतरह बींध दिया। आस-पास के सताए लोग भी हौंसला-अफ़ज़ाई को आ जुटे।
बंदे की तबियत ख़राब की ख़बर से पड़ोसी बैकफुट पर दिखा। किसी भी बाण का जवाब नही दे पाया। पुलिस में रपट होने की बात सुनी तो कांप गया। हे भगवान! लड़की छेड़ने के इल्ज़ाम में बरसों पहले हुई पिटाई याद आ गयी। पूरे पांच हज़ार देकर छूटा था। 
इधर बंदे की तबियत नियंत्रण से बाहर हो गयी। डॉक्टर की प्रेसक्राइब्ड दवायें भी बेअसर। पत्नी ने झगड़े पर क्रमशः लगाया। आजू-बाजू वालों की मदद से अस्पताल लेकर भागी। बंदे को आक्सीजन लगाई गयी। तमाम ज़रूरी इंजेक्शन भी ठुके। 
इस दौरान शर्मिंदा पड़ोसी अपनी गाड़ी व परिवार सहित बंदे की खिदमत में जुटा रहा। कान पकड़ कर बार-बार माफ़ी मांगी - भाभी जी, हमका माफ़ी दे दो। आइंदा ऐसी भूल नहीं होगी। बस कोर्ट-कचेहरी न करो। सरकारी मुलाज़िम हूं। नौकरी चली जायेगी।

Sunday, November 1, 2015

इक्का-तांगा स्टैंड वाले डॉ एसएआर रिज़वी।

- वीर विनोद छाबड़ा 
क़रीब २२ साल पुरानी बात है। मेरे पिता जी के एक गहरे दोस्त थे डॉ एस.ए.आर. रिज़वी। इल्मो-अदब के खासे शौक़ीन। मेरे पिताजी की दोनों साथ-साथ सारा इंडिया घूमे थे।

लखनऊ के डालीगंज इक्का-तांगा स्टैंड के पास उनका क्लीनिक था और निराला नगर में घर।  हमारे घर से करीब आठ-नौ किलोमीटर दूर। कई लोग उन्हें एक्का-तांगा स्टैंड वाले डॉ रिज़वी भी कहते थे। पिताजी उन्हीं से ईलाज कराते थे। क्लीनिक पर बहुत भीड़ रहती थी। इसलिये अक्सर उनके घर जा धमकते थे। उन दिनों पिताजी काफ़ी अस्वस्थ चल रहे थे। कुछ हज़म नहीं हो रहा था। कुछ भी खाते तो फ़ौरन कै हो जाती। हम पहुंचे डॉ रिज़वी के घर।
डॉक्टर साहब ने क़ायदे से मुआयना किया। बोले - मैं तो नाड़ी चेक करके ईलाज करने वाला डॉक्टर हूं। मेरा उसूल तो नहीं है मेरा। लेकिन आपके मामले में मजबूर हूं। होकर मास्टर हेल्थ चेक-अप करा लें। सब पता चल जाएगा।
हमारे घर पास ही एक नामी-गिरामी डायग्नोस्टिक सेंटर था। वही रेफेर कर दिया उन्होंने।
दूसरे दिन सारा चेक-अप हो गया। शाम तक रिपोर्ट भी आ गयी।
डॉ रिज़वी ने रिपोर्ट देखी। बिना अगली सांस लिये अपनी कार निकाली। और मशविरे के लिए ले गए एक नामी-गिरामी सर्जन डॉ केएम सिंह के पास। सर्जन ओटी जा रहे थे ऑपरेशन करने।
डॉ रिज़वी को देखते ही रुक गए। खड़े-खड़े रिपोर्ट देखी। बोले - कल आ जाईये, अल्ट्रासोनिक बाईएफ़सी कर दूंगा। तीन हज़ार ख़र्च होंगे।
हम चलने लगे तो उन्होंने कहा - मेरी फ़ीस, ढाई सौ रूपए।
मैंने फीस दे दी। डॉ रिज़वी को बहुत गुस्सा आया। अमूनन एक डॉक्टर दूसरे डॉक्टर से फ़ीस नहीं लेता।
डॉ रिज़वी ने हमारे पिताजी को पीजीआई रेफेर कर दिया। डॉ साहब खुद अपनी कार से उन्हें पीजीआई लेकर गये। डॉक्टर को दिखाया। और भर्ती करवा दिया। वही हुआ जिसका डॉ रिज़वी को अंदेशा था। कैंसर।
डॉ रिज़वी जब चलने लगे तो मेरे हाथ में एक लिफ़ाफ़ा पकड़ाया।
मैंने देखा यह उसी डाइग्नोस्टिक सेंटर का था जहां पिताजी का मास्टर हेल्थ चेकअप हुआ था। मैंने खोला तो उसमें ३१३ रूपए थे। मैंने डॉक्टर साहब की और देखा।