- वीर विनोद छाबड़ा
कई साल पहले की बात है। अस्सी का दशक था वो। ऑनलाईन की तो दूर दूर तक आहट नहीं
थी। लिहाज़ा लेख देने अख़बार के दफ़्तर में खुद जाना पड़ता था।
एक नामी अख़बार में फ़ीचर का काम एक मैडम देख रहीं थीं। बहुत लायक थीं। स्वभाव की
भी बहुत मृदु। अच्छी पारखी और मनीषी। पलक भर में ही भांप जातीं थीं कि लेख प्रकाशन
योग्य है कि नहीं।
हमारी हफ़्ते में एक-दो दफ़े उनसे भेंट हो ही जाती थी।
हमने लेख दिया।
उन्होंने सफ़े उल्टे-पुल्टे और पेंडुलम की तरह सर हिला दिया।
मतलब हां। दिल बाग़ बाग़ हुआ जाए रे। हमें बैठने का पूरा मौका ही नहीं मिलता था।
तशरीफ़ कुर्सी के पेंदे से लगी नहीं कि चला-चली के हालात पैदा हो जाते।
अब यह बात दीगर थी कि उसी वक़्त चाय आई। मैडम ने औपचारिकतावश चाय पूछी और हम पसड़
गए। चाय हमारी सदैव से कमजोरी रही है। किसी ने गुस्से में भी चाय ऑफर की तो हमने इंकार
नहीं किया। और फिर ओवर ए कप ऑफ़ टी बड़ी से बड़ी समस्याएं हल हो गयीं। न जाने कितने विश्व
युद्ध टल गए।
बहरहाल, एक बार हम कोई हफ़्ते भर के अंतराल के बाद गये।
देखा, मैडम की जगह कोई नई मैडम बैठी हैं। सुंदर चमकती हुई वेश-भूषा और सलीकेदार सज-धज
भी।
हमने उनसे पूछा - वो जो फलां-फलां मैडम यहां बैठती थीं वो कहां मिलेंगी?
उन्होंने हमें सर से पांव तक देखा और कहा - यहीं आपके सामने।
हम चौंक गए। मोटे लेंस वाले चश्मे के पीछे से हम उन्हें उल्लू की तरह आंखें फाड़-फाड़
कर देखने लगे।
हमारी इस मुद्रा पर वो खिलखिला कर हंस दीं। मोती जैसे फर्श पर गिर कर खनखनाये हों।