Thursday, November 5, 2015

दौड़ते रहना ज़रूरी है।

- वीर विनोद छाबड़ा
उन दिनों हम बच्चे थे। हमारे घर एक बाबा आये। घनी और सफ़ेद लंबी दाढ़ी। और घुटने तक लटकते बाल। गेरुआ वस्त्र।
बाबा को हमारे एक रिश्तेदार लेकर आये थे - ये बहुत पहुंचे हुए बाबा हैं। इनका कहा कभी झूठ नहीं हुआ। मस्तक की लकीरों से भूत-वर्तमान और भविष्य पढ़ लेते हैं।
हमें देखते ही बाबा बोले - यह अति वीर बालक है। ऊर्जावान है। अपार विद्या अर्जित करेगा। बहुत उच्च पद पर आसीन होगा। देश का नाम रोशन करेगा।
मां बहुत खुश हुई। बाबा को गर्मा-गर्म बेसन का हलवा खिलाया। दक्षिणा के तौर पर उन्हें सवा रूपया दिया। 
बहरहाल, बाबा के इस कथन से हमें घर में स्पेशल स्टेटस प्राप्त हो गया। उन दिनों हम सातवें दर्जे में थे। संयोग से कुछ दिनों बाद छमाही परीक्षाफल घोषित हुआ। हम प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। मां की ख़ुशी की सीमा न रही - बाबा की भविष्वाणी सच होनी शुरू हो गयी।
इधर हम भी निश्चिंत हो गए। बाबा के कथनानुसार हमारा बड़ा आदमी बनना तय है। क्या पढ़ना और क्या लिखना? दिन भर इधर-उधर आवारा गर्दी। जेब में हर वक़्त कंचे। कभी गुल्ली-डंडा कभी क्रिकेट। कबड्डी के भी शौक़ीन। आये दिन कपड़े फटना और चश्मे का टूटना। इसी बहाने कैसरबाग में बैजल चश्मेवाले की दुकान पर भागना।
नतीजा आठवीं कक्षा में एक विषय में फेल होने के कारण प्रमोशन मिला। यानि फेल होते-होते बचे। रिजल्ट कार्ड पर प्रमोटेड लिखा होना बड़ी ख़राब बात मानी जाती थी।
सिफ़ारिश से विद्यांत कॉलेज में एडमिशन मिला। लेकिन हम न सुधरे। दिमागमें घुसा हुआ था कि बड़ा आदमी तो बनना तय है। एक बार हाई स्कूल में फेल गए और फिर इंटरमीडिएट में। घर की प्रोग्रेस दो साल पीछे हो गयी। अब मां को लाल में अवगुण दिखने लगे। पिताजी तो पहले से ही विरोध करते थे बाबाओं को।
इधर हमें भी अक़्ल आई। पढ़ने पर खुद को फ़ोकस किया। इंटर बीए किया। फिर एमए करने यूनिवर्सिटी पहुंचे। सुंदर-सुंदर बालिकायें देख कर मन ललचाया। हस्तरेखा विज्ञान की एक पुस्तक ले आये। फ़र्ज़ी ज्योतिष बन लड़कियों के हाथ देखने शुरू किये।
उस ज़माने में हर लड़की का प्रथम और अंतिम सवाल यही होता था कि विवाह का योग है कि नहीं। उस दौर की एक और विशेषता होती थी कि लड़की रंग-रूप और कद-बुत से कैसी ही क्यों न हो, ९९% का ब्याह हो ही जाया करता था।
लेकिन हम अपने भविष्य को लेकर हमेशा आतंकित रहे। क्या होगा आगे? नौकरी मिलेगी या नहीं?
भले ही हम द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण होते रहे, लेकिन थे हम औसत दर्जे के विद्यार्थी। कभी-कभी हमें खुद पर आश्चर्य होता था - यार, पेपर तो बकवास दिया था। पास कैसे हो गए?

इसके दो कारण हो सकते थे। एक, परीक्षक हमारी जैसी औसत बुद्धि का था। दो, हमारी लेखन शैली से प्रभावित हुआ। 
यह नियति का खेल था कि हमें रवि प्रकाश मिश्रा जैसा दोस्त मिल गया। उसने हमें इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड में नौकरी नहीं दिलायी। हमने बाक़ायदा एग्जाम पास किया। लेकिन सूत्रधार मिश्रा ही रहा। उसका ज़िंदगी में आना। फॉर्म लाना। डांट-डपट कर हमें एग्जाम देने के लिए मजबूर करना।
इसके बाद भी कई मौके आये जब हमने सोचा कुछ और हुआ कुछ और। नियति में यही लिखा था। लेकिन हाथ पर हाथ रख बैठे रहने से कभी कुछ हासिल नहीं हुआ। जब-जब हम संतुष्ट होकर बैठे हमें नुकसान हुआ। जब-जब कर्म किया, फल मिला, भले मनवांछित नहीं।
ज़िंदगी के ६४ पूरे करने के बाद भी हम दौड़ ही रहे हैं।
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