Wednesday, November 4, 2015

लंगर वाली दाल।

- वीर विनोद छाबड़ा
जबसे अरहर महंगी हुई है हमें तरह-तरह की दालें खाने का मौका मिल रहा है। कभी मोठ तो कभी छोले और कभी साबूत मूंग की दाल। लौकी कभी नहीं सुहाई। लेकिन चने की दाल में घुली हुई बहुत अच्छी लगती है।

पिछले दो महीनों में इतनी दालें खाने और देखने मिलीं कि हम हैरान हो गए। यार, हमें तो मालूम ही न था कि दालों की इतनी बड़ी रेंज है। अरे, अरहर की दाल, तू पहले इतनी महंगी क्यों न हुई?
कई दालें तो हमने पहली बार खायीं। अभी तक हमने इनका नाम ही सुना था।
आज लंगर वाली दाल बनी। पहली बार उत्कंठा हुई जानने कि यह काहे की दाल है? मेमसाहब ने बताया कि काले उड़द और चने की दाल मिक्स करके बनती है यह।
लंगर वाली दाल के नाम पर याद आती है गुरूद्वारे की। साठ के दशक में अक्सर यही दाल बंटती थी लंगर में। घर में जब कभी यह दाल बनती तो यही कहते थे - लंगर वाली दाल।
क्या ज़माना था वोछटी क्लास से लेकर नवीं क्लास तक का। पहले चंदर नगर गुरद्वारा और फिर चारबाग़ का बड़ा गुरुद्वारा। गुरुपर्व के दिनों में बड़े दिल से रातभर 'कार सेवा'। चाहे सर्दी हो या गर्मी। सब्ज़ी काटना। दाल साफ़ करना। बेली हुई रोटियां को बहुत बड़े तवे पर डालना। सामान इधर से उधर रखना। कोई बड़ा बुज़ुर्ग डांट देता था तो आंसू टपक पड़ते थे। लेकिन जब वो 'पुत्तर जी' कह कर सर पर हाथ फेर देता तो फिर न कोई शिकवा और कोई शिक़ायत।
फिर अगले दिन दोपहर बारह के आसपास शुरू हो जाता था लंगर। सेवादार बन जाते। कभी बाल्टी में दाल भर कर पूछते चलना - दाला, दाला, दाला। या फिर रोटियां लेकर हरेक से पूछना - परशादा, परशादा, परशादा
कभी भीड़ का हिस्सा बन कर लंगर भी खूब खाया है। एकदम से भीड़ छोड़ी जाती थी खाने के लिए। कई बार गिरे। चोट भी खायी। कोई उठाने तक को नहीं आया कभी। सभी को अपनी-अपनी फ़िकर। अपने जिस्म को खुद ही उठाना पड़ा। कपड़े झाड़-पोंछ कर जा बैठे लंगर खाने।

एक बार तो ऐसा लगा कि लोगों के पैरों तले रौंद दिए जायेंगे। जैसे-तैसे जान बची। बस, तबसे लंगर पर जाना छोड़ दिया। उस दौर में बाकी तो ठीक था बस यही भीड़ को कंट्रोल करने का इंतज़ाम अच्छा नहीं रहा।
बाद में गुरूद्वारे तो हम कई बार किसी न किसी कारण से गए। वहां कड़ाह-परशाद खाना बहुत अच्छा लगा। जब कभी किसी गुरूद्वारे के सामने से गुज़रता हूं तो लंगर वाली दाल याद आती है। मालूम नहीं अब वहां कैसी होती है लंगर वाली दाल? वही काले उड़द और चने की मिक्स दाल या फिर कुछ और।
यों हमने सुना है कि कभी-कभी छोले और राजमां भी बनते हैं। वैसे ख़बर है कि दालों के दाम घट रहे हैं। अच्छी बात है। वरना हमने तय कर लिया था कि मत्था टेक कर लंगर की पंगत में बैठें जाकर।
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