Wednesday, May 20, 2015

अंत्येष्टि - खाली हाथ आया, खाली हाथ गया!

-वीर विनोद छाबड़ा
कुछ दिन हुए मुझे अपने एक मित्र की माता श्री की अंत्येष्टि में जाना पड़ा।
मित्र महोदय ने बताया कि वो ८९ वर्ष की थीं। कुछ अरसे से अस्वस्थ थीं। बढ़ती उम्र के बावजूद ठीक थीं मगर कूल्हे की हड्डी के टूट जाने से दुखी थीं। उस पर बुढ़ापा। हम दो भाई हैं। सात-आठ साल पहले पिताजी के गुज़र जाने के बाद वो अकेली हो गयीं थीं। सो कभी अहमदाबाद में छोटे भाई के पास तो कभी मेरे साथ लखनऊ में।
अभी अहमदाबाद में थीं। ज़िद की, लखनऊ ले चलो। पोते की सगाई देखनी है। मां की हर इच्छा पूरी करने में हम सदा तत्पर रहे। कभी मां भी खुद भूखी रह कर भी हमरी हर इच्छा पूरी करती थी।
जैसे-तैसे आ गयीं लखनऊ। १५ को पहुंची। १६ को सगाई की रस्म और रौनक देखी। और १७ की सुबह बैकुंठ के लिए रवाना हो गयीं। सगाई की रस्म निभाने आये सारे रिश्तेदार अभी लखनऊ में ही मौजद थे। मुक्ति पाने का अच्छा अवसर चुना उन्होंने।
मित्र महोदय संतुष्ट थे कि मां सारी ज़िम्मेदारियां पूरी करके गयीं हैं। हमें ज़िंदगी नाम की नेमत दे गयी। मां को कभी शिकायत का मौका नहीं दिया। खूब सेवा की।
ये बताते हुए उनकी आंखें सजल थीं। और चेहरे पर संतुष्टि भी।
अंतिम बिदाई देने मित्र के तमाम रिश्तेदार और इष्टमित्र शामिल थे।
ज्यादातर ज्ञान-ध्यान की बातें कर रहे थे। जाने कहां से परम ज्ञान आ गया। बुद्ध हो गए।  
मोह-माया भरम है, मिथ्या है। आत्मा का परमात्मा में मिलन ही इंसान का अंतिम निष्कर्ष है।
कमा कर छुपा ले जितना भी, सब यहीं रह जाना है। खाली हाथ आया है, खाली हाथ जाना है।
पाप का घड़ा इसी जन्म में फूटता है। देख लो तमाम जाने-माने कुबेर और धर्मात्मा सलाखों के पीछे हैं। कोई मारा-मारा छुपता हुआ घूम रहा है। पहुंच वाले छुट्टा घूम रहे हैं। जाने क्यों कोर्ट-कचेहरी की रहमत उन्हीं पर ही बरसती है  
इस पर प्रतिवाद भी है। ये सब मुकद्दर की बात है। टाइम ख़राब आया, धर लिए गए। मंत्री-संत्री भी बुरे वक़्त में सरक लिए। अभी तो हज़ारों हैं ऐसे। उन्हें कब और कौन धरेगा?
कोई राजनीती पर बहस रहा था। असंतुष्ट पिछवाड़े की टूटी नाली से लेकर गड्डे युक्त सडकों के लिए परेशान हैं। मुख्यमंत्री को लिखी अनगिनित चिट्ठियों का हवाला देते हुए सरकार को कोस रहा हैं।
कोई प्रधानमंत्री की शान में कसीदे पढ़ रहा था तो किसी को ये बात हज़म नहीं हो पा रही थी।
एक साहब सचिवालय में कार्यरत बाबू से चिंता व्यक्त कर रहे थे कि शासन डीए के आदेश क्यों नहीं जारी कर रहा?
उस दिन संडे था। लोग ज्यादा ही फ़ुरसत में थे। लिहाज़ा विश्राम हाल में पसरे पिकनिक मूड में हंसी-मज़ाक भी कर रहे थे।
इस मध्य छह-सात कर्मठ लोगों ने टाल से लकड़ी चिता स्थल तक पहुंचाई।
मुखाग्नि देने का समय आ गया। कुछ लोग करीब आ गए।

जींस और किल-मी छापे वाली टीशर्ट धारित नौजवान पंडे ने मंत्रो का उच्चारण किया।
मित्र ने मुखाग्नि दी। मैं मित्र के करीब ही खड़ा था। मैंने उनके कंधे पर हाथ रख दिया। वो भावुक हो गए और बुदबुदाये – अब तक खुशकिस्मत था कि मेरे पास मां है। आज ६८ पर अनाथ हुआ हूं।
तभी ज्ञान-ध्यान में मग्न संसार को मिथ्या कहने, डीए, टूटी नाली और सड़क की चिंता में घुलने और हंसी-ठट्ठा करने वालों को मुखाग्नि की खबर हुई। अचानक उन्हें महसूस हुआ अब यहां उनका क्या काम है? एक बजा है। घर पहुंचते डेढ़ हो जायेगा साथ ही लंच का टाइम भी।
एक तो कह भी उठा - बड़ी भूख लगी है। निकला जाए।
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-वीर विनोद छाबड़ा ७५०५६६३६२६/२०-०५-२०१५  

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