Monday, August 17, 2015

एक थे दीक्षितजी।

-वीर विनोद छाबड़ा 
हमारे एक सीनियर हुआ करते थे- सदाशिव दीक्षित जी।
अपनी तरह के अनोखे जीव। ग्रामीण पृष्ठभूमि से बहुत गहरे जुड़े हुए। कुदरत ने रंग भी गहरा सांवला दिया था और लहज़ा, आचार, व्यवहार भी बिलकुल खांटी क़िस्म का। बिंदास बात-चीत। कुश्ती के बेहद शौक़ीन और जानकर। कई बार लंगोट कस दंगल में भी कूदे। कुर्सी पर पालथी लगा कर बैठते थे। ऑफ़िसर होने के बाद भी उन्होंने अपना ये अंदाज़ नहीं छोड़ा।

विचारों से भी परंपरावादी और पुरातनपंथी और रहन-सहन में भी। यह काम मंगल को और यह बुध को - बुध करे सुध। मगर थे बहुत पढ़े-लिखे। अंग्रेजी में एमए थे। फाइलों में हिंदी में लिखे नोट्स पढ़ने में दिक्कत होती मगर अंग्रेज़ी  फटाफट पढ़ लेते। और लिखते तो गज़ब थे। ईमानदार और साफ़दिल। जो अंदर, वही बाहर।
दीक्षित जी दफ़्तर के काम से टूर पर जाने से एलर्जी थी। एक दिन इलाहाबाद जाना पड़ा। हाई कोर्ट में चल रहे सरकारी मुकदमे के सिलसिले में। हलफ़नामे पर दस्तख़त होने थे उनके।
वो जनरल डिब्बे में यात्रा करते थे। स्लीपर कोच में उन्हें उलझन होती। कहते थे - अमां उसमें सब सो जाते हैं। हम ठहरे बातूनी आदमी। ट्रेन में यों भी नींद कहां आती है।
लेकिन इस बार मामला अलग था। वो राजपत्रित पद पर प्रमोट हो चुके थे। नज़दीकी दोस्तों ने समझाया - दीक्षितजी, अब आप अधिकारी हैं। कोई छोटे-मोटे बाबू नहीं कि जहां और जब तबियत हुई, बैठ गए। पद की गरिमा का भी ध्यान रखना ज़रूरी है। फर्स्ट क्लास में जाने के लिए आप अधिकृत भी हैं। फिर मुक़द्दमे से संबंधित सीक्रेट फाइल भी ले जा रहे हैं। इसकी हिफाज़त भी ज़रूरी है। फर्स्ट में जाने का बनता है।
बामुश्किल दीक्षितजी माने। चल दिए सफ़र पर। चिरपरिचित देशी पोषाक। वही साधारण कुरता-पायजामा। एक हाथ में लोहे का छोटा संदूक। और दूसरे में घिसी-फटी पतलून की क़तर-ब्योंत से बना थैला। फर्स्ट क्लास का टिकट लिया। उन दिनों लखनऊ से इलाहाबाद का टिकट बड़ी आसानी  उपलब्ध था।
लेकिन वो जैसे ही हम फर्स्ट क्लास में घुसे टीटीई ने गंवार समझ दबोच लिया - अबे, कहां घुसे जा रहा है? यह फर्स्ट क्लास है, फर्स्ट।  
दीक्षित जी लाख समझाए - भैया, हम बाक़ायदा फर्स्ट क्लास का टिकट लिए हैं। बिजली बोर्ड में राजपत्रित अधिकारी हैं। हमारे पहनावे और सूरत पर मत जाओ। सरकारी मुक़द्दमे की पैरवी करने इलाहाबाद जा रहे हूं। न यकीन हो तो लो देख लो फाईल।
मगर टीटीई माना ही नहीं। टिकट देख कर भी नहीं। लेकिन जब दीक्षित जी ने फर्स्ट क्लास अंग्रेजी में उसे डांटा तो उसकी सिटी-पिट्टी गुम हो गयी।
दीक्षित जी ने ज़िंदगी में पहली मरतबे फर्स्ट क्लास देखा। बहुत भला लगा। दिन का सफ़र। लेकिन कूपे में साथ सफ़र कर रहे सूट-बूट वाले मुसाफिर असहज और परेशान दिखे। दीक्षित जी ने तनहा महसूस किया। एक-दूसरे से कोई बात-चीत नहीं। एक अंग्रेज़ी का अख़बार पढ़ने में मसरूफ़ और दूसरा जेम्स हेडली चेज़ के नावेल में घुसा था। बाकी बैठे-बैठे ऊंघ रहे थे।  
दीक्षित जी अगले स्टेशन पर डिब्बे से बाहर निकले। और जनरल में आकर बैठ गये। टिकट चेक करने वाला आया। उसकी आंखें फ़ैल गयीं - फर्स्ट का टिकट और जनरल में यात्रा? मूर्ख हो क्या?

दीक्षित जी बोले - ज़िंदादिल लोगों के बीच बैठने में जो मज़ा है वो मुरदों में नहीं। भारत का रहने वाला हूं, भारत की कथा सुनता और सुनाता हूं।
वापसी पर दीक्षित जी को जनरल में आना ही था। सारी जगते और साथी मुसाफिरों के साथ गप्पें मारते और खैनी खाते रहे। बहुत मज़ा आया उन्हें।
लौट कर दीक्षित जी ने हमें अपना यात्रा वृतांत सुनाया। और अंत में बोले देखना हम मुकद्दमा ज़रूर जीतेंगे। 
हम लोग दीक्षितजी की साफ़गोई पर फ़िदा हो गए।
दीक्षितजी अब दिवंगत हैं। उनका बेटा दिखता है कभी-कभी। लेकिन वो बात नहीं। पुराना सोना, खरा सोना। 
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१८-०८-२०१५ mob 7505663626
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