Sunday, August 2, 2015

अंकल 'जर्रा' पेन देना!

-वीर विनोद छाबड़ा
बैंक गए या पोस्ट ऑफिस या दफ्तर। ओह! जेब में पेन नहीं है। भूल गये। कुछ वाकई में। कुछ आदतन भुलक्क्ड़। तरह-तरह के लोग। तरह-तरह के बहाने। अब किसी न किसी से तो मांगना ही पड़ेगा।
कई को बड़ा कष्ट होता है, पेन देते हुए। सच कहें, हमने तो बड़ी ख़ुशी-ख़ुशी दिया। इस उम्मीद में कि शायद वापसी पर ऑटोग्राफ मांगे।

लेकिन हुआ उल्टा। कुछ ने पेन वापस तो किया लेकिन थैंकलैस 'थैंक्यू' कहना भूल गये। हमें ही कहना पड़ा - थैंक्यू पेन वापस करने का।
याद पड़ता है कुछेक तो पेन सहित तिड़ी हो गए और जाते-जाते हमें पेन (दर्द) दे गए।
दो-एक बार ऐसा भी हुआ कि हमीं पेन वापस लेना भूल गए। ख्याल आया तो दो-तीन किलोमीटर आगे निकल चुके थे।
बड़े-बुज़ुर्ग समझाते थे कि कभी किसी को पेन मत दो और अगर दो भी तो ढक्कन अपने पास रख लो। देने वाले को भी याद रहे और मांगने वाले को भी। लेकिन हमने कभी ध्यान नहीं दिया। पेन ही तो है। दो-तीन रूपये का। ले जाने दो। हमारी या उसकी ग़रीबी पर क्या फ़र्क पड़ेगा।
सावधानी हटी, दुर्घटना हुई। बेहद दुःख तब हुआ, जब इसी दरियादिली के चक्कर में हमने दिवंगत पिताजी द्वारा गिफ्टेड पेन गवां दिया। जाने कौन नामुराद लेकर रफ़ूचक्कर गया। बेहद बेशक़ीमती था वो। हमने इससे बीसियों आर्टिकल लिखे थे। दफ्तर में सैकड़ों लंबे-लंबे नोट और ड्राफ्ट तैयार किये। लिखते समय हमें पंख लग जाते। आत्मविश्वास से भर उठते। बुलेट माफ़िक स्पीड। सालों सीने से लगा कर रखा।  जगह-जगह ढूंढा किया। कइयों को अलर्ट किया कि पता चले तो फ़ौरन से पेश्तर ख़बर देना। कई रोज़ खाना नहीं अच्छा लगा। बड़े-बुज़ुर्गों की नसीहत नहीं मानने पर खुद को रह-रह बेहद कोसा। ले जाने वाले के लिये  बस यही दुआएं निकलती रहीं कि वो शरीफ़ हो। हिफाज़त से रखे। बेज़ा इस्तेमाल न करे।
वक़्त गुज़रता गया। धूल की मोटी परतों ने घाव भर दिए। लेकिन निशान बाकी रहा। जब तब टीस उठती है, जब कोई कहता है - अंकल 'जर्रा' पेन देना।
हमने पेन का ढक्कन अपने पास रख 'ज़र्रा' पेन दे दिया। अगले ने हमें सर से पांव तक बेतरह घूरा। मानो कह रहा हो - अबे ढाई हज़ार का जूता पहनते हो और पांच रुपए का पेन उधार देते फ.ती है।
और काम ख़त्म होने पर जब हमने याचक बन अपना पेन वापस, मांगा तो उसने फिर उसी तरह घूरा - अबे बुढ़ऊ, मर्रा क्यूं जा रहा है ? दो रूपए का यूज़ एंड थ्रो पेन है। इतरा यूं रहा है मानो हीरा जड़ा हो। ले अपना सड़ा पेन और मर।

अब कोई कुछ भी सोचे। मगर सच यही है कि पेन कितना ही पुराना क्यों न हो, खो जाने पर तक़लीफ़ तो होती ही है। जिस्म का अंग कट जाए जैसे।
हमारे दिवंगत मित्र रमेश चंद्र अहुजा जेब में, घर पर और दफ्तर में दर्जन भर पेन हर वक़्त रखते थे कि कब किसी को ज़रूरत पड़ जाए। पेन देते हुए कहना न भूलते - पेन रखने की आदत दालो। 

उनकी बीमारी के दौरान हम जब-जब उनसे मिलने घर गए तो लौटते हुए एक पेन जेब में ज़बरदस्ती ठूंस दिया। उनके गिफ्ट किये तमाम पेन में से अब एक ही बचा है। बतौर निशानी बैंक लॉकर में महफूज़ रख दिया है।
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