Monday, September 12, 2016

पूरे ७७ ही हैं, आगे बढ़ो

-वीर विनोद छाबड़ा
पड़ोसी के बेटे की शादी। बारात बनारस जानी है। भाड़े की प्राइवेट बस। दो वाली सीट पर तीन बैठे और और तीन वाली पर चार। कुछ बीच कॉरिडोर में अटैचियों पर बैठा दिए गए। दस-बारह तो छत पर चढ़ा दिए गए। वश चलता तो एक-आध को ड्राइवर की गोद में भी बैठा देते।
रवानगी से पहले गिनाई हुई। बस में ठूंसे और कार में दूल्हा सहित बैठे हुओं को शामिल कर कुल ७७ बंदे। रास्ते में दो जगह बस रूकी। एक बार चाय-नाश्ते के लिए और दूसरी बार भोजन के लिए। दोनों ही बार गिनाई हुई। ठीक है भाई, ७७ ही हैं। दोनों बार यह सुनने के बाद ही बस आगे बढ़ी।
यह गिनती वाला बंदा हमें कुछ संदिग्ध लगा। हमने जासूसी की। और हमारा अनुमान सही निकला। दाल में कुछ काला था। गिनती वाला बंदा वधु पक्ष का है। वर पक्ष का बंदा उसकी मुट्ठी गरम करता है। वो थोड़ा कुनमुनाता है। लेकिन वर पक्ष का बंदा उसे पुचकार कर मना लेता है। कोई गोरखधंधा है। जैसे जैसे कारवां बढ़ता गया, हमारी उत्सुकता बढ़ती गयी। 
खैर, हम बनारस पहुंचे। फिर गिनाई हुई। पूरे ७७ पाये गए। जनवासे में कुल ७७ पलंग। ७७ तकिये और ७७ दरियां और ७७ चददरें। गर्मी के दिन थे। इससे ज्यादा की ज़रूरत भी नहीं थी। नाश्ता आया। समोसे ७७, पेस्ट्री ७७, बिस्कुट बड़ा नमकीन ७७, चाय शुगर और फीकी दोनों मिला कर ७७ शक्कर। नाश्ते के बाद टॉफी भी बटी तो सिर्फ ७७ ही। गिनाई के लिए हर कदम पर उसी बंदे की ड्यूटी। और उससे चिपका हुआ वर पक्ष से भी वही बंदा। लेकिन यह ७७ के भेद नहीं खुल पा रहा था। अब चूंकि हम वर पक्ष से थे और उनके निकट पड़ोसी भी। इस नाते हमें उनकी पिछली तीन-चार पुश्तों का भी इतिहास ज्ञात था। हमने उस पर विहंगम दृष्टि डाली। तब हम इसी नतीजे पर पहुंचे कि कोई 'डील' है यह। गिनाई वाले बंदे की ड्यूटी थी कि नज़र रखे कि किसी भी स्टेज पर बारात में ७७ से ज्यादा न बंदे हों और न कोई और आईटम।   
बहरहाल, नाचते-कूदते हम वधु के द्वार पर पहुंचे। प्रवेश द्वार पर मानों स्कैनर लगा था। एक एक करके भाई। एक, दो, तीन...इक्कीसअड़तालीस...पचपन सत्तर...सतहत्तर और बस। नो एंट्री। वधु के पिता एंट्री पॉइंट पर अंबुजा की दीवार बन कर खड़े हो गए। वर के पिता भागे-भागे आये। श्रीमन नाक कटवाएंगे क्या हमारी?
वधु के पिता बोले - महोदय, आपको मुंह-मांगी रकम दी है। हर आईटम दिया है। टीवी, फ्रिज, एसी, सोना-चांदी, रिशतेदारों और प्रजा के लिए कपडे-लत्ते भी। ७७ बारातियो के
लिए भी गिफ़्ट। एक गरीब शिक्षक हूं। हर चीज तय हिसाब से हो रही है। बाराती भी पूरे ७७ तय हैं। इससे ज्यादा बारातियों की एंट्री चाहते हो तो ७७ रुपया नो प्रॉफिट नो लॉस प्रति प्लेट एक्स्ट्रा पेमेंट आप कर दें। याद रखें कि मैं उनमें से नहीं जो पगड़ी उतार कर पैरों पर रख दूं। मेरी बेटी गुणी है। कई लड़के मिलेंगे। लेकिन मेरी बेटी और और आपका बेटा एक-दूसरे को चाहते हैं। इसलिये अब तक खामोश हूं। आपकी डिमांड्स के बारे में जब आपके बेटे को पता चलेगा तो कदाचिद आपको रिजेक्ट कर दे।
ड्रामा लंबा खिंचता। कुछ बीच-बचाव वाले बुज़ुर्ग आगे बढ़े। सुख से शादी हो गयी। वापसी पर उतने ही बाराती लौटे जितने गए थे। एक वधु ज्यादा थी। गिनाई हुई तो १३१ थे। वर के कंजूस पिताश्री की आंखें खोलने के लिए वर और वधु के पिता ने ड्रामा रचा था, जो सफल रहा। आधी हक़ीक़त, आधा फ़साना। हमें साठ-सत्तर के दशक की कई फ़िल्में याद आयीं थीं जिनमें कुछ ऐसी ही टेलर मेड कहानी होती थी और ऐसे ही किरदार। फिल्म के आख़िरी सीन में आंखों का खुलना और फिर हैप्पी 'दि एंड'
---
Published in Prabhat Khabar dated 12 Sept 2016
---
D-2290 Indira Nagar
Lucknow - 226016
mob 7505663626



No comments:

Post a Comment