Sunday, September 18, 2016

बी पॉजिटिव।

- वीर विनोद छाबड़ा
हमारे एक मित्र ने अपने सबसे छोटे पुत्र की 'पसंद' को ठुकरा दिया। इसलिए कि वो लड़की अमीरों के खानदान की है, हिस्ट्री में पीएचडी है और मनीषी है। मित्र कहते हैं कि मैंने अपने पहले दो पुत्रों की शादी गरीब घर में की है। वो ज्यादा पढ़ी-लिखी भी नहीं हैं। इसलिए वो सर उठा कर बात नहीं कर सकतीं। विद्रोह का ख्याल तो सपने में भी नहीं आता।

मित्र ने छोटे पुत्र बहुत दबाव डाला। आत्म-हत्या की धमकी भी दी। आख़िरकार पितृ मोह की जीत हुई। पुत्र ने पिता की पसंद वाली लड़की से शादी कर ली। 
लेकिन अभी महीना भर भी नहीं गुज़रा था कि नवेली बहु ने विद्रोह कर दिया। उसे घूंघट से आज़ादी चाहिए थी। उसके कमरे में सास-ससुर और जेठानियों द्वारा हर समय जासूसी की जाती थी। उसको इस जासूसी से आज़ादी चाहिए थी। पति के संग घूमने की आज़ादी चाहिए थी। अपनी पसंद के खाने-पीने और ओढ़ने-पहनने की आज़ादी चाहिए थी। अपनी पसंद का अख़बार पढ़ने और टीवी प्रोग्राम देखने की आज़ादी चाहिए थी। उसे यह सब मायके में उपलब्ध था। पति के साथ नया जीवन चाहिए था, क़ैद नहीं।
पति को भी उसकी 'आज़ादी' का मतलब समझ में आ गया। उसने साफ़ साफ़ कह दिया। इस घुटन भरी क़ैद से आज़ादी दो अन्यथा वो खुद घर छोड़ देगा।
मित्र महोदय परेशान हुए। उन्हें भय था कि देखा-देखी पहले वाली दोनों बहुएं भी विद्रोह न कर दें। इसकी भनक उन्हें तब लगी जब वे डॉक्टर के पास चेक-अप के बहाने अपने पतियों के साथ मल्टीप्लेक्स में जाने लगी। पतियों के साथ रहने के मौके तलाशने लगीं। पतियों को भी ये नया जीवन पसंद आ गया। 

हमारे मित्र ने जीवन में कभी हार नहीं मानी थी। सबसे पहले तो वो 'गया जी' हो आये। खूब बड़े ब्रम्हभोज का आयोजन किया। अपनी संपत्ति के बंटवारे की घोषणा की, इस शर्त के साथ कि उनकी यह वसीयत उनकी मृत्यु के बाद ही लागू होगी। 

अब तीनों बहुएं अलग रहती हैं। सभी अपना पसंद का खाती-पीती हैं। आस-पास ही हैं सभी। सास-ससुर का जब भी मन होता है किसी के घर भी चले जाते हैं। खाने में वैरायटी मिलती है। सैर-सपाटा भी हो जाता है। महीने में एक बार पूरा परिवार उनके घर जमा होता है। सब मिल कर लंच और डिनर करते हैं। हमारे मित्र सबको सलाह देते हैं - समय बदल रहा है, हम भी बदलें। विद्रोह को पनपने ही मत दो। बी पॉजिटिव। 
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