Wednesday, May 10, 2017

तैंतीस करोड़ देवी-देवता याद आये थे उस दिन

- वीर विनोद छाबड़ा
मित्र ड्राइव कर रहे थे। मैं उनकी बगल में बैठा था। हज़रतगंज का चौराहा। लाल बत्ती। कार रुक गयी।
मित्र ने मेरी और देखा। कुछ कहना चाह रहे हैं शायद। अगले ही क्षण उन्होंने आवाज़ दी - सुनिये।
मैं चौंका। देखा, तो मित्र इलाहाबाद बैंक के फुटपाथ पर खड़ी एक भद्र महिला से मुख़ातिब हैं।
कार और उस महिला के दरम्यान चार-पांच फुट का फ़ासला है। महिला के कानों तक उनकी आवाज़ पहुंच गयी। उसने इधर-उधर देखा। लेकिन वो समझ नहीं पाई कि यह आवाज़ किधर से आ रही है। सहसा उसकी नज़र कार पर ठहरी। हम बायीं ओर बैठे थे। उसने हमें घूर कर देखा। जबकि मित्र दायीं तरफ थे। उन्हें वो देख नहीं पायी।
मित्र ने एक बार फिर आवाज़ दी - सुनिये।
महिला ने पुनः सुना तो लेकिन देख न पायी।
मैं कभी मित्र को तो कभी उस महिला को देख रहा था। अमां, कौन है यह? क्यों आवाज़ पर आवाज़ दे रहे हो।
तभी मित्र ने मेरा कंधा हिलाया - बुलाओ, जल्दी से उसको।
मैं उस महिला को और वो महिला मुझे ठीक-ठीक देख पा रही थी। मैडम, सुनिये
मेरा वाक्य पूरा न होने पाया था कि उस महिला ने भद्दी-भद्दी पांच-छह गालियां वहीं से दे मारीं। उसका चेहरा सुर्ख़ लाल हो गया। जैसे अंदर कोई ज्वालामुखी धधक उठा हो। कुछ लोग भी रुक गए।
मैं अवाक् उसे देखता रह गया। शायद मैंने किसी ग़लत महिला को आवाज़ लगा दी है! मैं मदद के लिए मित्र की ओर मुड़ा ही था कि महिला बड़ी तेज़ी से आगे बढ़ी। मुझे लगा जैसे ज्वालामुखी का धधकता लावा मेरी तरफ बहुत तेजी से बढ़ रहा है।
पलक झपकते ही वो मेरे बहुत क़रीब आ गयी। वो मुझ पर झपट पड़ी - घर में मां-बहनें नहीं हैं क्या? हरामी, कुत्ते, बदज़ात
यह कहते हुए उसका हाथ उठा.
मेरी आंखें स्वतः बंद हों गयीं। खुद को बचाव की मुद्रा में कर लिया। बोलती बंद। लगा गाल पर तड़ाक से कंटाप अब पड़ा कि अब पड़ा.
यह सब कुछ ही पलों में और बहुत तीव्र गति से हुआ। इस बीच मैं कई बार तीनों लोक घूम आया। तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं को याद किया.
कुछ क्षण बीत गए। लेकिन कुछ न हुआ। मेरा गाल सही सलामत है। आश्चर्य भी हुआ। शायद मेरी प्रार्थना तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं ने सुन ली है। मैंने डरते और कांपते हुए धीरे से आंखें खोली।
वो ज्वालामुखी मेरे मित्र से हंस हंस कर बतिया रही थी। इससे पहले कि मैं कुछ समझता सिग्नल हरा हो गया। उस महिला ने मित्र को थैंक्यू बोला। एक पल के लिए मुझे भी देखा और व्यंग्य से मुस्कुरा दी।
मित्र ने झटके से कार आगे बढ़ा दी। मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो कर मित्र को देखता रहा गया। मैं कतई सहज नहीं था। धक-धक करता दिल और चेहरे पर उड़ती हवाईयां। दुनिया का सबसे बड़ा महा मूर्ख ।और मेरा मित्र सबसे सुखी इंसान।

मैं फ़नफ़नाया और मित्र पर दर्जनों सवाल दाग दिए - यह सब है क्या? तुम दोनों के बीच मैं क्यों पिसा? कौन है वो? क्या नाम है उसका?
धैर्यवान मित्र बोला - शांत वत्स। उस महिला का नाम तो मुझे भी नहीं पता। स्टाफ नर्स है। मेरी वाईफ़ की सहकर्मी। अस्पताल में तो स्टाफ को सभी सिस्टर बोलते हैं। हमने तो 'लिफ्ट' के लिए पूछा था। इसमें कहीं कोई अपराध हुआ क्या? जो कुछ हुआ, ग़लतफ़हमी के कारण।
मेरा गुस्सा कतई ठंडा नहीं हुआ। ऑफिस में हम एक ही रूम शेयर करते थे। कई दिन तक मैंने मित्र से बात नहीं की। यद्यपि मित्र ने बहुतेरी कोशिश की।
कई दिन बाद एक दिन मित्र की पत्नी और वो स्टाफ नर्स महिला ऑफिस आयीं। उसने मुझे नमस्कार किया और साथ में सॉरी भी।
अब कोई महिला सॉरी बोले तो तीनों लोक सुधर ही जाने थे। और फिर चाय-पानी तो मेरी और से बनती ही थी न।
लेकिन मैंने कान पकड़े। बिना जान-पहचान हुए किसी महिला की ओर तकना तक नहीं, आवाज़ देना तो बहुत दूर की बात है।
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1 comment:

  1. लेकिन मैंने कान पकड़े। बिना जान-पहचान हुए किसी महिला की ओर तकना तक नहीं, आवाज़ देना तो बहुत दूर की बात है।
    सही समझे भले ही थोड़ी देर हुई
    प्रेरक प्रस्तुति

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