Thursday, May 18, 2017

अब कहां जायें हम?

- वीर विनोद छाबड़ा
हम लखनऊ के चारबाग़ रेलवे स्टेशन के सामने रेलवे की तिमंज़ली मल्टी स्टोरी बिल्डिंग में २१ साल रहे। पचास कदम पर पूर्वोत्तर रेलवे का लखनऊ जंक्शन। दो सौ मीटर की दूरी पर चारबाग़ राजकीय बस अड्डा। सामने मेन रोड थी। आलमबाग से हज़रतगंज जाने वाला सारा ट्रैफिक वहीं से गुज़रता था। बस अड्डे से गोरखपुर-बनारस की दिशा की ओर जाने वाला ट्रैफिक भी वहीं से होकर जाता था। सड़क पर कोई गड्ढ़ा बन गया या टूट गयी तो समझ लीजिये कोढ़ में खाज। ट्रैफ़िक के शोर प्लस गड्ढ़े में के ऊपर से गुज़रने का शोर।
हम तिमंज़ले पर रहते थे, कोने वाले मकान में। कुल तीन खिड़कियां थीं। बंद करने पर भी सड़क पर गुज़रते वाहनों का शोर। सुनने के आदी हो गए थे। लेकिन जब पढ़ने बैठे तो पागल हो गए।
फिर स्टेशन के सामने रहने का अलग से ख़ामियाज़ा भी। किसी न किस वज़ह से कोई न कोई मेहमान बना ही रहता। मसलन चार घंटे ट्रेन लेट हो गई। अब घर जाकर क्या करेंगे? किसी को सुबह सवेरे ट्रेन पकड़नी है तो वो रात को आ गया। कहां जायें हम?

मां छत पर भेज देती थी। वहां शोर फैला हुआ मिलता। ऊपर खुला आसमान। पढ़ने में दिल लग जाता था। गर्मियों में खम्मन पीर का उर्स। तीन-तीन दिन तक रात भर जगह-जगह कव्वालियां। लेकिन हम छत पर टेबल लैंप की रोशनी में जैसे-तैसे फोकस करते रहे और गिरते-पड़ते पास भी हो गए। हमारी कॉलोनी के कई लड़के तो इस शोर में भी पढ़ते हुए फर्स्ट आये। कोई डॉक्टर बन गया तो कोई इंजीनियर। हम फिस्सडी थे, इसलिए बाबू बनना नसीब में रहा। गो, वो बात दूसरी है कि हम बिजली बोर्ड से डिप्टी जीएम की पोस्ट से रिटायर हुए।
अस्सी के दशक की शुरूआत में हम चारबाग़ छोड़ कर इंदिरा नगर के डी ब्लॉक में शिफ्ट हुए तो अहसास हुआ कि हम जंगल में आ गए हैं। सिर्फ़ दर्जन भर मकानों में रहते थे लोग। बगल से गुज़रती कुकरैल फारेस्ट रोड। रात में कुत्ता भी टहलता हुआ दिखा तो लगा कि भेड़िया है। कस कर दरवाज़े बंद कर लेते थे।
न सड़क का शोर और न इंजिन की कूक और न ट्रेन की खड़खड़। वहां रूरल फीडर से बत्ती आती थी। जाती तो कई कई घंटो तक न लौटती। कई बार दो दिन बाद आई। सन्नाटा हमें दिन में भी डराता रहा। महीनों तक नींद नहीं आई। बार-बार किसी न किसी बहाने चारबाग़ भागते थे। संयोग से पत्नी का मायका भी उधर पानदरीबा में था। कई बार हमने स्टेशन के जेनरल वेटिंग रूम में भी शरण ली।

लेकिन साल गुज़रते ही इंदिरा नगर के सन्नाटे के ऐसे आदी हो गए। अब यह सन्नाटा हमें सकून देने लगा। जब कभी चारबाग़ जाना भी हुआ तो वहां का शोर-गुल सुन कर लगा कि नरक में आ गए। हमें हैरानी होती थी कि किस तरह नरक में काटे इक्कीस साल। 
आज कई साल गुज़र चुके हैं। इंदिरा नगर में दूर-दूर तक आबादी ही आबादी है। मुश्किल पचास कदम पर सीतापुर हाईवे है। शोर की दृष्टि से मुंशीपुलिया शहर का सबसे प्रदूषित इलाक़ा है और हमारा घर मुंशीपुलिया से कोई सौ मीटर की दूरी पर। बरसात के दिनों में तो जलभराव और बदबूदार गंदगी। हमें पांच किलोमीटर दूर बहती गोमती नदी और चार किलो मीटर दूर कुकरैल नाले में आने वाली बाढ़ से कोई खतरा नहीं है लेकिन सीवर लाइनों और खराब ड्रैनेज से से ज्यादा खतरा है। यानी ऊपर नरक में बाद नीचे एक और दूसरा नरक। बत्ती का जाना तो दिल की धड़कनें और बीपी बढ़ा देता है। 
यानी लौट आये पुराने दिन। हर तरह का प्रदूषण। समझ में नहीं आता कि अब यहां से कहां जायें हम?
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19-05-2017 mob 7505663626
D-2290 Indira Nagar 
Lucknow - 226016

1 comment:

  1. बहुत सुंदर बयान किया। हम भी जब 91 की स्कीम में सेक्टर सोलह का मकान अप्लाई किए तो कुछ भी नहीं था। बाद में प्लॉट के सामने लेखराज गोल्ड जब बना तो लगा कि इससे बढ़िया जगह नहीं हो सकती। लेकिन भीड़ और शोर बढ़ता गया। शराब की दुकानों ने तो नाक में दम कर दिया था कि अखिलेश सरकार जाते जाते इनके लाइसेंस बंद कर दिए। थोड़ी राहत है लेकिन अब मन उचट गया है भीड़ से।

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