Saturday, October 10, 2015

इस स्कूल में छड़ी मास्टरों की भरमार है।

-वीर विनोद छाबड़ा
भली भांति याद है हमें वो गुजरा ज़माना। लगभग प्रत्येक शिक्षक की प्राथमिकताओं में था - देश को एक अच्छा नागरिक और बेहतर शैक्षिक माहौल देना।
कुछ अपवादों को छोड़कर शिक्षक प्राईवेट टयूशन नहीं करते थे। ज़्यादातर में समर्पण की भावना थी। क्योंकि उन्हें मालूम था कि परिवार संस्कार डालता है तो शिक्षक छात्र को इंसान बनाता है।
आमतौर पर शिक्षक गरीब था। विद्यांत कॉलेज के प्रिसिपल मुखर्जी साहब रिक्शे से आया करते थे। शायद उनके पास कार भी थी।
कुछ अपवाद छोड़ दें तो ज्यादातर शिक्षक साईकिल का प्रयोग करते थे। जैसे ही स्कूल में प्रवेश किया नहीं कि छात्रों में उनकी साईकिल थामने के लिये होड़ शुरू हो जाती। ये कृत समाज में उनके प्रति अति सम्मान का सूचक था। एक शिक्षक थे जो मोटर साईकल से आते थे और चमड़े की जैकेट पहनते थे। छात्रों में उनकी छवि अच्छी नहीं थी।
शिक्षक का फोकस कुशाग्र छात्रों पर नहीं अपितु कमज़ोर छा़त्रों पर था। उनकी कमजोरी को कभी एक्स्ट्रा क्लास लेकर तो कभी उनके माता-पिता को परामर्श देकर दूर किया जाता था।
इस मामले में हम साफ़ दिल रहे हैं। हमारी गिनती तो सदैव मंद बुद्धि छात्रों में रही। लिहाज़ा हमने भी ऐसी अनेक एक्स्ट्रा क्लासें अटेंड की।
शिक्षकों के तरकस में बैले छात्रों को सुधारने के कई तरीके थे। कुछ शिक्षक प्यार का सहारा लेते थे और कुछ समझावन लाल यानि छड़ी से भय पैदा करते थे। हालांकि इसका कोई लाभ नहीं हुआ। बिगड़ैल व बैले कभी नहीं सुधरे। आम धारणा होती थी कि इनमें मैन्यूफैक्चुरिेग डिफेक्ट है।
यों छड़ी वाले मास्टरों का ज़बरदस्त जलवा था। बिगड़ैल छात्र भी ख़ौफज़दा रहते थे। मगर क्या मजाल कि कोई पलट कर चूं भी करे या बदले की भावना पाले।
दरअसल छात्रों को मालूम होता था कि किस कसूर की सज़ा मिली है।
मजे की बात तो ये थी उस ज़माने के मां-बाप भी बच्चे का दाखिला ऐसे स्कूल में कराना पसंद करते थे जहां प्रशासन व प्रिंसिपल सख्त हो और छड़ी मास्टरों की भरमार हो।
हमें विद्यांत कॉलेज में इसी तथ्य के दृष्टिगत भर्ती कराया गया था। हम कई बार बेंच पर खड़े किये गए। मुर्गा भी बने कई बार। सच बताऊं हमें न छड़ी ने सुधारा और न मुर्गे ने। शिक्षकों ने हमारी आत्मा को झिंझोड़ा तब जाकर आदमी से इंसान बने। कुछ तो शिक्षकों के आचरण और उनके व्यवहार ने भी असर डाला।

हमें याद आता हैं उस ज़माने में गुरु-शिष्य के रिश्तों की प्रेरक फ़िल्में भी आया करती थीं। एक फिल्म की धुंधली याद है। एक शिक्षक के परिवार पर विपत्ति आई। दुष्टों ने उन्हें बेघर कर दिया। मामला न्याय प्रिय मजिस्ट्रेट के सामने पेश हुआ। मजिस्ट्रेट ने उनको न्याय दिया। उनके चरण स्पर्श किये। उनको याद दिलाया कि वो उनका वही शरारती छात्र है जिसे पास होने पर उन्होंने पेन प्रेजेंट किया था। कहा था मजिस्ट्रेट बनना। इसी पेन से इंसाफ करना। और वही पेन  इंसाफ़ करने का काम आ रहा है। इसके बाद वो मजिस्ट्रेट उन्हें घर ले गया और अपने माता-पिता की तरह रखा।

अब वक़्त बदल गया है। न छड़ी का डर रहा है और न मुर्गा बनने का। और अपवाद छोड़ दें तो छात्रों में अपने टीचर के प्रति पहले जैसी इज़्ज़त भी नहीं। हो भी कैसे? अब रिश्ता पैसे का है। 
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