Saturday, October 3, 2015

मेरे लायक सेवा बतायें।

प्रस्तुति -वीर विनोद छाबड़ा
उस लेखक को अपने लेखक होने पर बहुत घमंड था। आत्मश्लाघा से पीड़ित।
एक दिन वो बड़े अरमानों से महात्मा गांधी से मिलने पहुंचा। उन दिनों गांधी जी 'हरिजन' नामक पत्रिका का संपादन भी किया करते थे।
आमतौर पर गांधी जी से लोग सीखने जाते थे। चुपचाप उन्हें बस सुनते रहते। लेकिन उस लेखक ने गांधीजी को बोलने का मौका ही नहीं दिया। अपनी बहादुरी के किस्से सुनाने लगा। अपने समक्ष दावे प्रस्तुत करता रहा - मैं फलां बड़े व्यक्ति को जानता हूं। और ढमकाना महान लेखक से मेरे बहुत अच्छे संबंध हैं। वे सब मेरे व्यक्तित्व और लेखन के बारे में बहुत अच्छी राय रखते हैं।
फिर उस लेखक ने भविष्य में लेखन और प्रकाशन के संबंध अपनी बड़ी-बड़ी योजनाओं के बारे में बताया।
वो लेखक सोच रहा था कि उसकी से शेखी से अब तक गांधीजी प्रभावित हो चुके होंगे, अब तक महान बन चुका होगा।
गांधीजी चुपचाप अपने घरेलू काम करते रहे और साथ ही धैर्य से उसकी बातें सुन कर मुस्कुराते रहे। लेकिन कोई जिज्ञासा प्रकट नहीं की।
गांधीजी ने जब उसके प्रति कोई रुचि नहीं दिखाई तो लेखक थोड़ा व्यथित हुआ। अब उसके पास बताने को कुछ बचा भी नहीं था। तब उसने वहां से जाना ही बेहतर समझा। अचानक उसके ज़हन में एक विचार आया। उसे यकीन था कि यह ब्रम्हास्त्र खाली नहीं जायेगा। महात्मा जी, मेरे लायक कोई सेवा हो तो अवश्य बतायें।
उसने सोचा गांधी जी अवश्य ही उसे 'हरिजन' में लेख लिखने को कहेंगे।
लेकिन गांधी जी ने ऐसा कुछ नहीं कहा।
उस लेखक ने एक बार फिर जोरपूर्वक आग्रह किया।

इस बार गांधी जी ने अपनी चुप्पी तोड़ी। अगर आप वास्तव में मेरे लिए कुछ करना चाहते हैं तो एक काम करें।
लेखक महोदय की बांछें खिल गयीं। ब्रम्हास्त्र काम कर गया। अवश्य। आप निसंकोच काम तो बतायें। मैं सहर्ष करूंगा।
गांधी जी सहजता पूर्वक कहा - वो कोने में चक्की रखी है, साथ में गेहूं का बोरा भी। कृपया उसे पीस दें।
नोट - जूनियर हाई स्कूल में एक मास्टरजी गांधी जयंती पर सुनाते थे।
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