Friday, October 9, 2015

कल हो, न हो!

-वीर विनोद छाबड़ा 
उस दिन हम डॉक्टर के पहुंचे। देर हो चुकी थी। अंधेरा गहरा हो गया था।
क्लीनिक बंद कर डॉ साहब अपनी कार में बैठने जा रहे थे। हमें देखते ही
बोले - क्या हुआ?
हमने कहा - ज़ुकाम-खांसी। और थोड़ा बुख़ार।
वो बोले -  सुबह देख लेंगे। ज़रूरत पड़े तो एक क्रोसीन ले लेना और गर्म पानी के भपारे कर लेना।
डॉक्टर साहब ने कार स्टार्ट की ही थी कि एक और मरीज़ हांफता-कांपता आ गया - बड़ी तेज़ बुख़ार है। सांस फूल रही है।
डॉक्टर उसे जानते थे। उम्र दराज़ था वो। डॉक्टर ने उसका हाथ पकड़ा - बिलकुल ठंडा। रोज़ का धंधा है तुम्हारा। पीके आया है?
नहीं नहीं, बिलकुल नहीं। वो गिड़गिड़ाया। देखिये कितना सांस फूल रही है।
डॉक्टर ने उसके सीने पर हाथ रखा। पीठ सहलायी। अस्थमा का अटैक है। पंप कर लो। वो तो है ही तुम्हारे पास। और फिर कल सुबह आना।
लेकिन हांफता हुआ वो मरीज़ नहीं माना - डॉक्टर आप तो मुझे देख लेंगे सुबह लेकिन मैं आपको नहीं देख पाऊंगा।
डॉक्टर ने एकबारगी उसे सर से पांव तक देखा। कार बंद कर दी। कंपाउंडर को मोबाईल किया। क्लीनिक खुलवाया। उस मरीज़ को दवा दी।
उस मरीज़ ने डॉक्टर के हाथ में दस-दस के कुछ नोट थमाये और थैंक्यू कह कर अंधेरे में गुम हो गया।
हमने गौर किया कि जाते वक़्त उस आदमी की सांस नहीं फूल रही थी। हमने डॉक्टर की और देखा।
डॉक्टर साहब मेरी छाती पर आला रखते हुए मुस्कुराये - कुछ नहीं था। अकेला रहता है ,पत्नी है नहीं। बच्चों की शादी कर चुका है। सब विदेश में अपनी-अपनी ज़िंदगी जी रहे हैं। वो कहते हैं आजा। लेकिन देश नहीं छोड़ना चाहता। कभी-कभी घबरा जाता है। अकेलापन खाने को दौड़ता है। कभी-कभी पी भी लेता है। मैंने दवा हाथ में रखी नहीं कि ठीक हो जाता है। दवा भी बहुत मामूली है। आज इसने मुझे डरा दिया कि मैं कल आपको नहीं देखा पाऊंगा। वाक़ई कुछ हो जाता तो ज़िंदगी भर खुद को माफ़ न कर पाता। कल हो, न हो।

हमने कहा - ऐसा ही एक लतीफ़ा भी पढ़ा है, जिसमें मरीज़ डॉक्टर से कहता है आप तो मुझे कल देख लोगे लेकिन मैं नहीं देख पाऊंगा।
डॉक्टर - लेकिन कभी-कभी लतीफ़े भी सच हो जाते हैं।
बहरहाल हमने मन ही मन उस आदमी और डॉक्टर को धन्यवाद दिया कि इस बहाने हमें भी दवा मिल गयी और उन दो बंदों को भी, जो इस बीच भूले-भटके आ गए थे। 

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09-10-2015 mob 7505663626
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Lucknow-226016

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