Wednesday, September 28, 2016

आंसू, तीर्थ यात्री के बहाने पिता के आख़िरी सफ़र की कुछ यादें।

-वीर विनोद छाबड़ा
उन दिनों मैं बहुत छोटा था। किसी को भी रोते हुए देखता तो रोने लगता। मां पूछती थी - क्यों रो रहा है?
मैं रोते हुए की तरफ़ इशारा कर दिया करता था।
ये आंसू कभी थमे नहीं। बात-बात पर बहे। चाहे दुःख हो या सुख। दफ़्तर में किसी का काम कर दिया। उसने शुक्रिया कहा तो डांट लगा दी। रुलाएगा क्या?  
अमरनाथ और मानसरोवर की यात्रा पर जा रहे तीर्थ यात्रियों या हज यात्रियों को देख कर भी आंखें भीग गयीं। सफ़र बहुत लंबा और दुरूह है। शायद आख़िरी भी।
कितना अजीब लगता है जब इस नीयत से विदाई दी जा रही हो कि इनका कल हो, न हो।
मुझे याद है जब मेरे पिता को कैंसर घोषित हुआ और जीने की बाकी मियाद ढाई-तीन महीने बताई गयी। 
उन दिनों मैंने इतने आंसू देखे कि उन आंसूओं को पोंछते-पोंछते मेरे आंसू सूख गये।
पिताजी से मिलने वालों का तांता लगा रहता था। चलो मिल आयें। रामलाल को आख़िरी दफ़े देख लें। इनमें इंटरव्यू की अभिलाषा लिये कई पत्रकार और लेखक बंधु भी होते थे। लखनऊ दूरदर्शन ने उन पर उन्हीं दिनों डॉक्यूमेंटरी भी बना डाली। साहित्य एकेडमी वाले भी उन्हीं दिनों जगे। जाते-जाते दे डालो।
बहरहाल, होता यही था जब दोस्त-अहबाब जा रहे होते थे तो उनकी आंख में आंसू होते थे।
पिता जी की आंख में मैंने सिर्फ़ एक बार आंसू देखे। उनके बचपन के सखा और उर्दू के लेखक हीरानंद सोज़ फ़रीदाबाद से ख़ास उनसे मिलने आये थे। वो दो दिन उनके साथ रहे। इस दौरान सिर्फ़ और सिर्फ़ बचपन को याद किया। वो खेल का मैदान, वो गुल्ली डंडा, वो छड़ी से मारने वाले अंग्रेज़ी के मास्टर हरीचंद, वो लड़ाई-झगड़े और फिर मान-मनौवल, वो अनाजमंडी और गलियां
जब हीरानंद जी लौट रहे थे तो मेरे पिता की आंख में आंसू थे और हीरानंद जी भी। बड़ी कातर दृष्टि से पलट कर देखा। उन्हें यकीन था कि दोबारा उन्हें देखना नहीं होगा। यार, जल्दी से स्कूटर स्टार्ट कर। बर्दाश्त नहीं हो रहा।  
मेरी भी यही स्थिति थी। सुबह ऑफिस के लिए निकलता तो उन्हें जी भर कर देख लेता। न जाने अगले पल में क्या लिखा है? अब ये बात दूसरी है कि एक छोटा सा चमत्कार हुआ। जीने की मियाद ढाई-तीन महीने से आगे बढ़ गयी। तक़रीबन साढ़े-तीन साल। उनके कई मित्र इसे वरदान समझ दोबारा आ गए।
और मैं पल-पल आशंकित रहा। अब आया, और अब आया वो पल। बड़े क्रूर होते हैं वो पल। चैन से जीने भी नहीं देते।

मैं आज भी सोचता हूं क्या सोचते होंगे मेरे पिता। कैसे जीते रहे वो एक निश्चित मौत को साथ सुला कर। जब भी रात चुपके से उनके कमरे में झांका तो उन्हें टेबल लैंप की रोशनी में कुछ पढ़ते या लिखते हुए पाता। शाम वो अपने नाती-पोते और पोती के साथ खेलते थे। किसी भी आते-जाते को भी रोक कर उसका हाल-चाल पूछते। कभी-कभी पड़ोसियों के द्वार खटखटाते - जोशीजी.गंगारामजी.रामरतनजी.फ़रीद ठीक तो हो न? बहुत दिन से दिखे नहीं।
एक दिन एक पंडित जी को पकड़ कर बैठे थे। संस्कृत के कुछ शब्दों का अर्थ पूछ रहे थे।
मैंने पूछा - क्या करेंगे जान कर?
कहने लगे, ऊपर न जाने कौन सी भाषा होगी?
ज़िंदगी से भरपूर इंसान थे। आंख आज भी भर आती है जब मैं किसी ऐसे शख्स को देखता हूं, जो कभी उनके संग रहा हो। 

नोट - यह पोस्ट मैंने क्यों लिखी? शायद इसलिए कि पितृ पक्ष के दिनों में माता-पिता की याद आती है।  
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28-09-2016 mob 7505663626
D-2290 Indira Nagar
Lucknow - 226016 

7 comments:

  1. बहुत मार्मिक ,,में भी इस बीमारी से बहार आया हूँ ,,में भी थोड़ा बहुत मौत की छुअन समझता हूँ ,,आपके पिताश्री को सादर श्रधांजलि,,,,,

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  2. बहुत मार्मिक ,,में भी इस बीमारी से बहार आया हूँ ,,में भी थोड़ा बहुत मौत की छुअन समझता हूँ ,,आपके पिताश्री को सादर श्रधांजलि,,,,,

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  3. पितृ पक्ष में पिता को सच्ची श्रद्धान्जली

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  4. भावभीनी श्रदांजलि।अत पिता को याद रखना और उनके संस्मरणों को संजोने भी एक तरह से उनका सम्मान है।आपकी भावनाओं को नमन प्रणाम

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