Friday, January 1, 2016

अहसान फ़रामोश!

- वीर विनोद छाबड़ा 
कल शाम एक पुराने परिचित से मुलाक़ात हुई। ज़माना हुआ हमने कामना की थी कि यह शख़्स हमें दोबारा न मिले।
लेकिन होता वही है जो नियति में लिखा होता है। बोले - पहचाना।
हमने कहा - तुम्हें कैसे भूल सकता हूं?

उन्हें देख कर हमें एक वाक्या याद आ गया।

बरसों पहले की बात है। वो अकाउंटेंट थे। दूसरे शहर में पोस्ट थे। ऑफिस में अक्सर आया करते थे, अपने किसी न किसी काम से। लखनऊ ट्रांसफर भी चाहते थे। हमें लगा सूरत से भले आदमी हैं, सीरत से भी होंगे। हम उनकी भरसक मदद करते रहते थे। एक उच्च अधिकारी से सिफ़ारिश भी की।
आख़िरकार मेहनत रंग लाई। कोशिशें क़ामयाब हुईं। वो लखनऊ ट्रांसफर हो गए। मनपसंद इलाके में पोस्टिंग भी पा गए। वो व्यस्त हो गए। मिलना-जुलना भी कम हो गया।
एक दिन एक घनिष्ट मित्र आये। उनका बिजली का बिल पिछले महीने की तुलना में बहुत ज्यादा आ गया। हमने उन्हीं परिचित को फ़ोन किया। लेकिन बहुतेरी कोशिश के बावजूद नंबर लगा नहीं। शायद लाईन में दिक्कत रही थी। लिहाज़ा हमने मित्र को उन्हीं परिचित के पास भेज दिया। साथ में पत्र भी दे दिया - पत्रवाहक बहुत ईमानदार और सज्जन व्यकित हैं। कृपया यथासंभव मदद कर दें।
कुछ दिन गुज़र गये। हमारे मित्र आये। बोले - काम हो गया।
हमने कहा - बधाई।
मित्र कुछ क्षण चुप रहने के बाद दुखी स्वर में बोले - यार, यह तुम्हारा परिचित ठीक आदमी नहीं है।
हमने पूछा - वो कैसे? मित्र ने बताया - काम तो उसने मेरा कर दिया, लेकिन एवज़ में हज़ार रूपया ले लिया।
हमें आश्चर्य हुआ और साथ में गुस्सा भी आया - किस बात का? मित्र ने बताया - वो कह रहा था कि देखो, छाबड़ा जी भेजा है तो मैं अपना हिस्सा तो नहीं लूंगा, लेकिन ऊपर वाले मुफ़्त में दस्तख़त नहीं करते। और हां, छाबड़ा जी को यह बात न बताना।


वो परिचित कह रहे थे - सीनियर एकाउंट्स ऑफ़िसर हो गया था। साल भर पहले रिटायर हुआ हूं। लेकिन एक्सटेंशन पर चल रहा हूं। पड़ोस में फलां सेक्टर में रहता हूं। कोई काम हो बताईयेगा।
हमने कहा - हमने मदद करनी बंद कर दी है।
यह कह कर हम आगे बढ़ लिए। सोचने लगे कि लगता है, भले आदमियों का अकाल पड़ गया है। तभी तो ऐसे ही लोग बार-बार मिलते हैं।
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३०-१०-२०१५

Above posted on face book dated 30 October 2015

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