Saturday, January 9, 2016

अफ़सोस में सुख।

- वीर विनोद छाबड़ा
हम जब किसी ग़मी में जाते हैं तो वहां कोई न कोई बंदा ऐसा ज़रूर दिख जाता है कि बरबस हमें अपना बचपन याद आ रहा है।
हमारे एक रिश्तेदार होते थे, लाला रामलुभाया। ज़बरदस्त सोशल वर्कर। सफ़ेद घुटनों तक लंबी कमीज़ और सलवार।
किसी ज़माने में पंजाबी में इसे सुथण कहा जाता था। सुख में भले न सही लेकिन ख़बर पाते ही दुःख बांटने ज़रूर पहुंच जाते थे वो। हड्डियां कड़कड़ाने वाली सर्दी हो या झुलसाने वाली गर्मी या मूसलाधार बारिश, कोई रोक नहीं पाया उन्हें। वो कहते थे कि उन्हें अफ़सोस करने में सुख मिलता है। परमात्मा के दर्शन होते हैं।
ग़म बांटने का तरीका भी अजब रहा उनका। सर्वप्रथम तो वो दिवंगत के बारे में पूर्ण जानकारी प्राप्त करते। फिर दिवंगत के घर जाते। वहां दस मिनट तो ज़रूर ही बैठते। और इस दौरान दिवंगत आत्मा से अपने रिश्तों के बारे में बात करते रहते, जो वास्तव में कभी रहे ही नहीं होते थे।
अगर कोई उनके कान में फुसफुसाता था कि झूठ क्यों बोल रहे हो, तो उनका कहना होता था कि स्वर्गवासी के बारे में अच्छी बातें ही कहता हूं। और फिर वो ऊपर से नीचे मना करने तो आएगा नहीं।
चलते-चलते रामलुभाया जी की आंखों से झरझर पानी बहने लगता और उस समय उनके हिंदी-पंजाबी में मिक्स शब्द कुछ यूं हुआ करते थे - ओये पूरणलाल  मेरे यार, तेरा जैसा बंदा दूजा नहीं मिलणा। ये रामजी न जाने क्यों भले लोगों को ही उठाते हैं? ओ अब तेरे जैसा यार कहां से लाऊंगा? जाणा तो मैनूं सी, तू क्यों चला गया? ओये रब्बया मुझे भी पूरणलाल के साथ ले जाता। इको ही गड्डी में बैठ जाते...

जिसकी अनब्याही लड़कियां होतीं थीं उन्हें सलाह देने से भी न चूकते थे - मुंडा देखो, शक्ल-सूरत ते कम-काज नहीं। बस कुड़ियां टोरो।
रामलुभाया जी कभी-कभी ओवर भी हो जाते थे। फिर घड़ी देखते। उठ कर सबको नमस्ते करते और बाहर निकल जाते। उस वक़्त उनकी आंखों से निकलते आंसू असली होते थे और उनकी नाक भी बहने लगती थी, जिसे वो अपने घुटनों तक लंबी कमीज़ के निचले हिस्से से पोंछते और आगे चल देते।
किसी और के घर अफ़सोस करने।
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Lucknow - 226016
  

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