Tuesday, January 26, 2016

फिर याद आई प्रीतम की।

- वीर विनोद छाबड़ा
आज एक बहुत अज़ीज़ मित्र प्रीतम की बड़ी याद आ रही है। यह असली नाम नहीं है। बड़ा मज़ेदार आदमी थे। हंसते और हंसाते रहते थे।

प्रीतम कभी वक़्त पर ऑफिस नहीं आये। लेकिन सीट पर कभी कोई फाईल पेंडिंग नहीं रहीं। चाहे रात दस बजे तक क्यों न बैठना पड़े।
हमारे साथ ही भर्ती हुए थे प्रीतम। भाग्य ने कुछ ऐसा पलटा खाया कि उनको मेरे अधीनस्थ काम करना पड़ा। लेकिन, चूंकि हम परफेक्ट दोस्त थे, इसलिए कोई परेशानी नहीं हुई। हम लोग छुट्टी के दिन भी दफ़्तर में हाज़िरी लगाते थे ताकि हमारे सहकर्मियों के प्रशासनिक काम निर्बाध होते रहें।
प्रीतम और हम एक-दूसरे के हमराज़ भी थे। एक दिन मज़ाक-मज़ाक में प्रीतम हमसे कहने लगे - यार, मुझे समझ में नहीं आता कि ये महिलायें मुझसे दूर-दूर क्यों रहती हैं। मुझमें कोई ऐसा ऐब भी नहीं है। देखने में भी ठीक-ठाक हूं। और सबसे बड़ी योग्यता तो यह है कि कुंवारा हूं। फिर भी कोई नमस्ते नहीं करती। बाहर वालियों को छोड़ो, अपने सेक्शन में एक नहीं तीन-तीन हैं, लेकिन नमस्ते तो दूर देखती तक नहीं हैं। आफ्टरऑल सीनियर-मोस्ट हूं। और एक तुम हो कि बिना नमस्ते किये सीट से हिलेंगी नहीं, चाहे देर क्यों न हो जाए।
हमने एक उपाय निकाला। पूरे स्टाफ को मौखिक निर्देश दिए कि शाम को अगर हम सीट पर न हों तो सीनियर-मोस्ट प्रीतम जी को अपना अधिकारी समझें। और उन्हीं को नमस्ते करके घर जायें।
उसी शाम, ऑफिस टाइम ख़त्म हुआ। हम सीट पर ही थे और प्रीतम जी हमेशा की तरह सर झुकाये फ़ाइल में घुसे हुए थे। महिला कर्मियों ने  प्रोटोकॉल का अनुपालन करते हुए हमें नमस्ते की और फिर अचानक सर झुकाये काम में तल्लीन प्रीतम जी की ओर घूमीं। और ज़ोर से बोलीं - प्रीतम भाईसाहब, नमस्ते।
ऐसे दृश्य के लिए हममें से कोई भी तैयार नहीं था। कुछ पल के लिए हम सब भौंचक्के रहे गए। फिर हम सबको बहुत ज़ोर की  हंसी आ गयी।

इधर प्रीतम जी हड़बड़ा गए। सीट से गिरते गिरते बचे। लेकिन जल्दी माज़रा समझ कर वो भी हंस पड़े और हाथ जोड़ कर बोले - बहनों अभी राखी तो दूर है। लेकिन मैं कल कहीं से इंतज़ाम कर लूंगा। कल का चाय-नाश्ता मेरी ओर से।
लेकिन अगले दिन दुखद खबर आई। उनके दिमाग की एक पुरानी चोट रिसने लगी। उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। वो अस्पताल में भर्ती थे कि उनके पिताजी का देहांत हो गया। चार दिन गुज़रे न थे कि प्रीतमजी भी चल बसे। हम सब हतप्रद और निसहाय से खड़े नियति का क्रूर कारनामा देखते रह गए। वो अड़तालीस साल के थे, कोई उम्र नहीं थी जाने की।  
प्रीतमजी ने कतिपय प्रतिबद्धताओं के कारण विवाह भी नहीं किया था।
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