Saturday, January 2, 2016

दोस्त दोस्त न रहा.…

-वीर विनोद छाबड़ा
मेरे पिताजी एक आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक थे। आत्मीयता ऐसी कि कठोर हृदय भी पिघल जाए। उन्हें इस कारण भी बहुत लोग याद रखते हैं।  

शायद यही कारण रहा कि मेरे पिता मेरे पिता होने से अधिक मेरे मित्र रहे।


हम जब बात कर रहे होते थे तो बात कई बार बहस में बदल जाती, मुद्दों पर असहमति के कारण। मुद्दे राजनैतिक भी होते और सामाजिक भी। कभी-कभी पारिवारिक भी। कभी नाराज़गी की सीमा भी पार हो जाती। इस बिंदु पर कभी पिताजी को अहसास होता कि वो पिता हैं और कभी मुझे अहसास होता कि मैं पुत्र हूं। सो, दोनों में से कोई एक पहल ले लेता, एक-दूसरे को मनाने की।
जब कभी उनके तीन चार दोस्त जमा होते तो महफ़िल जम जाती। मैं भी उसमें शामिल रहता। लेकिन सिगरेट पीना मंज़ूर नहीं होता।

पिताजी कहते थे - पीते तो हो।

लेकिन मुझे यह सोच कर बड़ा ख़राब लगता कि मेरे मुंह से निकला झूठा धुआं उड़ते -उड़ते पिताजी के मुंह पर कहीं-कहीं न लगेगा ज़रूर। फिर संस्कार भी आड़े आते। बेटे को बाप के सामने बैठ कर धुआं नहीं उड़ाना चाहिये। 
 

पिताजी से मुझे शिकायत भी रही और जलन भी। मेरे कई हमउम्र रहे मेरे पिताजी के मित्र थे। जबकि उन्हें मेरा मित्र होना चाहिये था। बात यहीं तक रहती तो भी ठीक था। ऐसा कई बार हुआ कि कोई मेरा मित्र आया और मैं घर पर मिला नहीं। पिताजी ने उसे बैठा लिया। आवभगत की। लेकिन जब तक मैं लौटता तो पता चलता कि मेरा मित्र मेरा नहीं रहा। वो पिताजी का मित्र बन चुका होता। दोस्त दोस्त न रहा, ज़िंदगी हमें तेरा ऐतबार न रहा। मैं उसके लिए एक मित्र का पुत्र होता।

पिताजी दिवंगत हुए तो मुझे विरासत में कई मित्र मिले। मेरे हमउम्र भी और वो भी जिन्हें मैंने पिता को खो दिया था।

उन्नीस साल हो चुके हैं लेकिन मैं उनके साथ सहज नहीं हो सका हूं। दिल में अहसास रहता है, ये मेरे दिवंगत पिताजी के मित्र हैं। 

मुझे सीमा में रहना है।
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