Saturday, January 30, 2016

निंदक भी अपना हुआ।

-वीर विनोद छाबड़ा
गांधी जी के जितने प्रशंसक थे उतने ही निंदक भी। लेकिन यह गांधी के व्यक्तित्व, आचार और व्यवहार का ही कमाल था कि उनसे एक बार जो मिल लिया वो उनका हो गया। इस सिलसिले में स्कूल के दिनों में हिस्ट्री के गांधी भक्त मास्टरजी हमें एक वाक्या सुनाया करते थे।

उन दिनों गांधी जी इंग्लैंड में थे। उनसे मिलने अनेक लोग आये। भारतीय मूल के साथ और अन्य जातीय मूल के लोग और अंग्रेज़ भी आये।
उनमें से एक अंग्रेज़ गांधी जी और उनकी अहिंसावादी नीतियों का कट्टर विरोधी था। उसने गांधी जी के मुंह पर उनकी खूब आलोचना की। गांधी जी कुछ नहीं बोले। बस मुस्कुरा दिए।
लौट कर उसने गांधी जी की बुराई करते हुए ढेर कवितायें लिखी। इन कविताओं की भाषा अतिरंजित और व्यंग्यात्मक थी। उसने सोचा अगर गांधी जी इसे पढ़ेंगे तो बिलबिला उठेंगे, तिलमिलायेंगे और बहुत क्रोधित होंगे। कुछ न कुछ बुरा-भला भी कहेंगे। बड़ा मज़ा आएगा। तब उसे गांधी की ऐसी-तैसी करने का एक मुद्दा मिलेगा। यह सोचते सोचते वो पुलकित हो उठा - अहा!
वो अंग्रेज़ गांधी जी के पास गया। अपनी कवितायें गांधी जी को इस दरख़्वास्त और इसरार के साथ दीं कि वो वक़्त निकाल कर इन्हें पढ़ें ज़रूर।
गांधी जी ने मुस्कुरा कर उन कविताओं के उस पुलिंदे को लिया। जल्दी-जल्दी उसका एक-एक सफ़ा पलटा। फिर पुलिंदे पर लगा सेफ्टी पिन निकाला और उन तमाम सफ़ों को रद्दी टोकरी के हवाले कर दिया।

गांधी जी इस हरकत पर वो अंग्रेज़ बहुत क्रोधित हुआ - यह क्या बदतमीज़ी है? पूरी कवितायें न सही इनका सार तो पढ़ लिया होता जो मैंने हर कविता के अंत में लिखा है। आप में तनिक भी सौंदर्यबोध नहीं है।
गांधी जी अंग्रेज़ के क्रोध और आरोप पर तनिक भी विचलित नहीं हुए। वो बोले - सार तो मैंने पहले ही निकाल कर अपने पास सुरक्षित रख लिया है।
यह कहते हुए गांधी जी ने सेफ्टी पिन की और इशारा कर दिया।
गांधी जी का वो कट्टर विरोधी अंग्रेज़ उस दिन से उनका अनन्य भक्त बन गया।
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