Friday, July 1, 2016

बंदा सही मिले तो हर मुश्किल आसान।

- वीर विनोद छाबड़ा
जबसे कम्प्यूटर आया है बैंक की सर्विसेस बहुत फास्ट हो गई हैं। काउंटर पर लंबी कतारें नहीं दिखती हैं। एफडी हाथों हाथ बन जाती है और भुगतान भी हो जाता है। पांच साल से हमें एचडीएफसी के दफ़्तर नहीं जाना पड़ा। सीधा बैंक में पैसा पहुंच जाता है। प्रतिस्पर्धा का युग भी है।

लेकिन कुछ बैंक हैं जो पिछली सदी में जी रहे हैं, जहां कहा जाता है कि एफडी की रसीद कल मिलेगी। बहुत जल्दी है तो चार बजे देख लें। अरे भाई, शाम होने में तो अभी छह घंटे हैं। तब तक समय कहां बिताऊंगा? सीनियर सिटीज़न हूं। बार-बार इतनी धूप में आना संभव नहीं है। जवाब मिलता है कि सभी ऐसा ही कहते हैं।
हमारे एक मित्र ने पूछा कि तीन बैंकों में खाता क्यों खोला है? हमने बताया - न जाने कब किसका सरवर डाउन हो जाए और कितने वक़्त के लिए? और फिर मशीन के पीछे बैठा आदमी भी आखिरकार इंसान है, न जाने कब उसका मूड बिगड़ जाए? यों चेहरा भी बता देता है कि आज घरवाली से खिटपिट हुई है या ब्वॉय फ्रेंड से झगड़ा। हमें उस असिस्टेंट से डीलिंग करते समय बहुत सावधानी बरतनी पड़ती है।
करीब आठ साल पहले की बात है। मेमसाब का एक्सीडेंट हुआ। बांह की हड्डी टूट गई। डॉक्टर ने कहा फौरन ऑपरेशन करना होगा। तीस हज़ार रुपये नकद एडवांस जमा कराएं। नो चेक। चिरौरी भी बेकार गई। हम फौरन भागे बैंक। हम दूसरों की आपत्ति की परवाह न करते हुए सीधा विंडो पर पहुंचे। एक सांस में अपनी विपदा बताई। चेक दिया। कैशियर ने हमें फौरन तीस हज़ार गिन कर दे दिए। बाकी की कार्यवाही हम कर लेंगे। आपत्ति कर रही जनता भी शांत हो गई।
अपवादों को छोड़ दें तो जज़्बात की कद्र अब भी बरकरार हैं। करीब बीस साल पहले की बात है। हमारे घर से कोई दो-तीन सौ मीटर दूर एक बैंक हुआ करता था - भारत ओवरसीज़ बैंक लिमिटेड। बहुत भीड़ रहा करती थी। जब तब तू-तू मैं-मैं भी होती थी। बात बढ़ने पर मैनेजर खुद उठ कर आता था और काम में हाथ बंटाने लगता  था। बाद में यह बैंक आईओबी में मर्ज हो गया। नए मैनेजर साहब आए। लेकिन पब्लिक को हो रही असुविधा की सुध उन्होंने कभी नहीं ली।

उन्हीं दिनों का एक तजुर्बा और है। पिताजी का देहांत हो गया। बैंक के मनैजर ने कहा कि फैमिली पेंशन के लिए माताजी को बैंक लेकर आएं। मां के संपूर्ण बाएं हिस्से में पैरालिसिस था।चलने-फिरने से पूरी तरह लाचार। लेकिन वो साहब नहीं माने। खैर, जैसे-तैसे हम लेकर गए। मैनेजर साहब बोले - सॉरी, अकारण इतना कष्ट दिया। उसके बाद जब तक मां जीवित रहीं उन्हें बैंक नहीं जाना पड़ा। मां की अंगूठा निशानी लगवा कर हम भुगातन लेते रहे। एक और बैंक में मां का खाता था। वहां के एक असिस्टेंट ने मदद की। हम मैंडेट के ज़रिये पेमेंट मिलता रहा।

दरअसल, नियम-कानून अपनी जगह पर होते हैं और मानना भी चाहिए। लेकिन अगर सही बंदे मिल जायें तो कुछ भी मुश्किल नहीं है। 
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