Tuesday, July 19, 2016

मुबारक़ की मुठ्ठी भर शोहरत

- वीर विनोद छाबड़ा
पचास और साठ का दशक, संगीत की दुनिया का गोल्डन ईरा और इसी दौर की मुबारक़ बेगम। मखमली आवाज़। पिता को प्रतिभा दिखी। बेटी बड़ी होके बड़ा नाम करेगी। किराना घराने के शास्त्रीय संगीत का प्रशिक्षण दिला दिया। उस्ताद रियाज़ुदीन खान और उस्ताद समद खान साहेब ने इस आवाज़ को तराश दिया आकाशवाणी में गाने लगीं। नाशाद (नौशाद नहीं) ने सुना तो दौड़ पड़े। 'आइये' फिल्म के लिए सोलो गवाया - मोहे आने लगी अंगड़ाई आज बलमा...इसी फिल्म के लिए लता के साथ भी गाया। लेकिन मायानगरी की माया निराली। लता को अगली फिल्म मिली 'महल' - आयेगा, आयेगा, आयेगा आने वाला...लता ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। मगर मुबारक़ पीछे छूट गईं। उनका प्रचारित और प्रसारित करने का नेटवर्क बहुत कमजोर था। सिर्फ़ गाने से मतलब, पैसे से नहीं। मौला की मर्ज़ी पर बसर करती रहीं। सी ग्रेड और बी ग्रेड की फिल्मों में गाती रहीं। कुछ गाने तो बहुत ही मकबूल हुए - नींद उड़ जाए तेरी चैन से सोने वालों... हम हाले दिल सुनाएंगे... बे मुररवत बेवफा बेगन-ए-दिल आप हैं...

काबिल केदार शर्मा छोटे बजट की 'हमारी याद आयेगी' बना रहे थे। एक गाना लता से चाहते थे गवाना। लेकिन जेब ठनठन गोपाल। तब मुबारक़ ने पूरी की लता की कमी - कभी तन्हाइयो में हमारी याद आएगी...कई लोगों ने पूछा, यह लता ही हैं? 'हमराही' के एक गाने की रिकॉर्डिंग लता जी के साथ तय थी। लेकिन वो बाहर थीं। शंकर-जयकिशन को याद आई मखमली आवाज़ मुबारक़। बिना रिहर्सल के रिकॉर्डिंग - मुझको अपने गले लगा लो...। दिल की गहराइयों में उतर गईं। मेहताना मिला महज़ १५० रूपए। लता जी तो हज़ार से कम न लेतीं। अरे रख लो, आगे चांस और मिलेगा। सुपर हिट हुआ यह गाना। लेकिन कोई नामी-गिरामी संगीतकार नहीं आया। 'आरज़ू' के लिए लता-आशा पर एक दोगाने की रिकॉर्डिंग होनी थी। लता जी फिर गायब। शंकर-जयकिशन को फिर याद आई वो मखमली आवाज़। आईये, आपही का इंतज़ार था - जब इश्क कहीं हो जाता है...तात्कालिक शोहरत मिली। लेकिन फिर वही अंतहीन अंधेरी गली। मुकद्दर न बदला। कुछ साल पहले एक इंटरव्यू में लता-आशा का बिना नाम लिए कहा था - उन बहनों से सब डरते हैं। ऐसे में कौन पूछे मुझे?

मुफ़लिसी में सारी ज़िंदगी गुज़री। पति के देहांत के बाद ज़िंदगी बेटे-बहु के सहारे गुजर रही है। एक बैडरूम का एक छोटा सा फ्लैट। उसी में खाना और उठना-बैठना और सोना। मुबारक़ अक्सर दर्द बयां किया करती थीं - पैसा कभी बचा ही नहीं। रोजमर्रा की ज़रूरतें ही पूरी हो गईं, यही ख़ैर रही। बेटा फ्रीलांस ड्राईवर है और बहु कहीं छोटा-मोटा काम करती है। महज ८०० रुपए फैमिली पेंशन और एक अखबार मदद से ३००० रूपये महीना मुंबई शहर में बहुत कम है। सब तो दवाइयों में खर्च होता है।

पिछले साल बेटी चल बसी। बिल चुकाने को पैसा नहीं था। मुबारक़ गहरे अवसाद में चली गईं। सलमान भाई आये। हर महीने मेडिकल बिल अब वही चुकाते हैं। लता जी आईं थीं। कुछ मदद कर गईं। और कोई नहीं आया। सपनों की दुनिया है। हरेक को तो मुकम्मल जहां मिलता। मुबारक़ के नसीब में मुट्ठी भर धूप ही बदी थी। कलाकार की ज़िंदगी में अस्सी साल के कोई मायने नहीं रखते।
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Published in Prabhat Khabar dated 20 July 2016
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