Tuesday, July 5, 2016

पापा चाहिए।

- वीर विनोद छाबड़ा
ऋतु बड़ी हो गई थी। अच्छा-बुरा समझने की सलाहियत आ गई थी। वो देखा करती थी कि उसकी सहेलियों का मम्मी-पापा उनको डांटते रहते थे। कहां गई थी? किसके संग घूम रही थी? सहेली का कोई नाम होगा? टोका-टाकी भी बहुत होती रहती थी। यह मत खाओ, यहां नहीं वहां बैठो। वगैरह वगैरह।

ऋतु को हैरानी होती थी कि उसे तो उसकी मम्मी ने कभी नहीं डांटा और न कभी पूछा कि कहां थी अब तक? पापा तो इतने सज्जन थे कि पूछो मत। वो उसकी सहेलियों के मम्मी-पापा की तरह क्यों नहीं हैं? जिज्ञासा शांत करने के लिए उसने एक दिन उसने पापा से पूछ ही लिया - पापा, आपने मुझे कभी डांटा है? मुझे तो याद नहीं है। आपको मैंने हमेशा खुश देखा है। आखिरी बार आप कब दुखी हुए थे? याद है आपको?
पापा ने ऋतु के सिर प्यार से हाथ फेरा और कुछ याद करते हुए बोले - हां, मेरी लाडो, बहुत अच्छी तरह याद है। वो दिन भला मैं कैसे भूल सकता हूं? मैं बहुत गुस्सैल स्वभाव का आदमी था। हर वक्त किसी न किसी से लड़ना-झगड़ना और मारा-मारी करना। लोग डर के मारे मेरे साये से भी दूर रहते थे। तब तुम नन्हीं गुड़िया थी। ढाई-तीन साल की रही होगी। एक दिन तुम रो रही थी। तुम्हारी मम्मी घर पर नहीं थी। तुम्हें चुप कराने के लिए मैंने तुम्हारे सामने एक पेन, रुपए का सिक्का और एक खिलौना रख दिया। यह तीनों क्रमशः विद्वत्ता, दौलत और मनोरंजन के प्रतीक थे। तीनों को या तीनों में किसी एक को चुनने का विकल्प दे दिया। उन्हें देख कर सच-मुच तुम्हारा रोना बंद हो गया। तुम धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ने लगी। मैं
अधीर हो कर देख रहा था कि तुम किसे चुनती हो? तुम ज्यों ज्यों उनके निकट आने लगी, मेरे दिल की धड़कन बढ़ने लगी। लेकिन सहसा तुमने एक ऐसी हरकत की कि मैं दंग रह गया। खूब रोया मैं उस दिन। उस दिन के बाद से मेरी दुनिया ही बदल गई। जानती हो क्या किया था तुमने? तुमने पेन, रुपया और खिलौने को एक तरफ कर दिया था और सीधा मेरे सीने से लग गई थी।
नोट - मेरे मित्र रवींद्र नाथ अरोड़ा अक्सर मुझे ऐसी कथाएं सुना कर भावुक बना देते हैं।
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