Thursday, October 20, 2016

जो हमने दास्तां अपनी सुनाई आप क्यों रोये?

- वीर विनोद छाबड़ा 
बाद मुद्दत हम मिले। तकरीबन चालीस साल बाद। एक-दूसरे को देखा। कुछ क्षण ठिठके। फिर पहचान लिया। 

मैंने कहा - अमां तू।
उसने भी कहा - अमां तू।
मैंने कहा - तेरे सर पर उगी घनी खेती नहीं रही। आस-पास की घास-फूस रह गयी है बस।
उसने कहा - तो तेरी खेती भी तो बकरी चर गयी।
फिर हमने इक-दूजे को बाहों में भर लिया। खैर-सल्लाह पूछी। जानकारी प्राप्त की कि आगे-पीछे कौन-कौन है। कितने गुज़र गए और कितने बाकी हैं। यूनिवर्सिटी के दिनों की याद करते करते एक ढाबे में बैठ कर चाय पीने लगे।
फिर मैंने उत्सुकता से पूछा - उसका क्या हुआ जो तुझे रोज़ खिड़की से कपड़ा दिखाया करती थी?
उसका ज़ायका ख़राब हो गया - मत पूछ यार। वो एक ग़लतफ़हमी थी, जो आज तक झेल रहा हूं।
मैंने पूछा - क्या मतलब?
उसने गहरी सांस ली - क्या बताऊँ दोस्त। वो मुझे कपड़ा दिखाती थी तो मैंने भी जवाब में उसे कपड़ा दिखाना शुरू किया। कपड़ों के रंग रोज़ बदलते रहे। उधर से लाल तो इधर से नीला। इधर हरा तो उधर आसमानी। फिर हम दोनों एक दिन बाज़ार में मिले। होटल में बैठे। चिड़ियाघर में टहले। और फिर.
वो चुप गया। 
मेरी उत्सुकता बढ़ती गयी - अमां, आगे बोल। हुआ क्या?
वो उदास होते हुए बोले - अमां, होना क्या था? भाग कर हमने शादी कर ली, कोर्ट में।
मुझे आश्चर्य हुआ - तो फिर इसमें इतनी उदासी क्यों?
वो बोला - दोस्त। पिक्चर अभी बाकी है। तुमने क्लाइमैक्स सुना ही कहां?
हमारी सांस गले में अटक गयी - अबे, बताता क्यों नहीं है?
वो बोला - थोड़ा धैर्य रख यार। क्लाइमैक्स को क्लाइमैक्स की तरह सुन। 
मैंने कहा - हां हां। ठीक है।

उसका गला भर आया - यार शादी के बाद पता चला वो उस घर की नौकरानी थी, जो रोज़ कपड़े से खिड़की के शीशे साफ़ करती थी।
मैंने हमदर्दी जताई - ओह हो हो! तो यह रहा क्लाइमैक्स। वाकई बड़ा दर्दनाक। 
वो नाराज़ सा हो गया - यार तू बड़ी जल्दी एंड पर पहुंच जाता है। आख़िरी सीन तो सुन ले।
मुझे आश्चर्य हुआ - अब क्या बाकी रहा?
वो मेरे कंधे पर सर रख बोला - यहां तक तो मैंने सब बर्दाश्त कर लिया, दोस्त। लेकिन जानता है वो मुझे क्या समझती थी? अरे वो मुझे भी घर का नौकर समझती थी। और आज भी.
और वो भलभला कर रो दिये।

मेरी भी आंखें नम हो आयीं। मैंने उसके कंधे को थपथपाया - कोई बात नहीं दोस्त। यों भी शादी के बाद सबको नौकर ही बनना पड़ता है। 
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