Sunday, October 9, 2016

और मैं अट्ठारह साल पहले का गौरांगो ढूंढ रहा था

-वीर विनोद छाबड़ा
अस्सी और नब्बे का दशक।
लखनऊ के अख़बारों में प्रकाशित क्रिकेट के आंकड़े और नीचे संकलनकर्ता - गौरांग दास गुप्त। कभी-कभी ये आंकड़े मेरे लेख का भी हिस्सा बनते थे। लखनऊ के संदर्भ में उसकी तुलना उस दौर के क्रिकेट आंकड़ों के विश्वविख्यात विशेषज्ञ बीबी मामा से की जाती थी। कंप्यूटर रहित दौर में क्रिकेट के आंकड़ों का सटीक संकलन कोई मज़ाक नहीं था।

लेकिन मुझे याद आता था, साठ के दशक में मेरे साथ हाईस्कूल-इंटर में पढ़ने वाला गौरांग दास गुप्त।
क्या ये वही गौरांगो है? नहीं, वो तो विकलांग था! उसका भला क्रिकेट मैदान से क्या रिश्ता? आंकड़े जमा करना कोई खाला जी का घर तो है नहीं। फिर भी यार पता तो कर।
पता चला, हां वो विकलांग है। मैं अवाक रह जाता हूं। फिर तो ये मेरे साथ पढ़ने वाला गौरंगो है।
आगे पता चला कि वो एलआईसी में है। मैं अगले ही दिन पहुंच गया एलआईसी के हज़रतगंज स्थित बड़े ऑफिस। यह १९९३ की बात है।
जैसे ही मैंने गौरांग का नाम लिया एक आदमी बड़ी इज़्ज़त से एक आदमी तक ले गया। देखा, एक चौड़े बड़े चेहरे वाला मच्योर आदमी, रौबदार बड़ी-बड़ी मूंछे। साइड में बैसाखियां रखी हैं।
मैं सोचने लगा - यार ये वो मेरे साथ पढ़ने वाला गौरांगो नहीं है। वो तो दुबला-पतला। और ये कहां पहलवान और दादा किस्म का। निराशा हुई। लेकिन अब आ ही गया हूं। मिल लूं। क्रिकेट पर ही तो बात करनी है। कोई भी गौरांग हो?
उसने सर से पांव तक मुझे देखकर बैठने का इशारा किया। सिगरेट सुलगाई और लट्ठमार सवाल दागा -  ट्रांसफर चाहिए।
मैंने कहा - नहीं। मैं आपसे क्रिकेट पर डिस्कस करने आया हूं।
एकदम से उसके चेहरे का भाव बदल गया। ख़ुशी वाली मुस्कान। गदगद।
हम काफी देर तक क्रिकेट के विभिन्न पहलुओं पर बात करते रहे। दो बार चाय सुड़की और तीन सिगरेट फूंकी। घड़ी में चार बज रहा था। चलूं, दफ़्तर में बॉस बिगड़ता होगा।
ज्यों ही चलने को उठा तो उसने टोका - ओ जेंटलमैन, बातों में इतना खो गया कि नाम पूछना ही भूल गया।
मुझे भी हैरानी हुई- वाकई। मैं वीर.
मेरी बात अभी पूरी हुई ही नहीं थी कि वो सीट से उचक पड़ा। अगर वो विकलांग न होता तो यकीनन दो फ़ीट तक उछल चुका होता। इस एक्शन से मुझे यकीन हो गया कि ये वही गौरांगो है।
वो चीख रहा था - अबे, तू छाबड़ा। कबसे तलाश रहा हूं? एक मुद्दत से तुम्हारे आर्टिकल पढ़ रहा हूं। अरे, जल्दी से समोसा लाओ यार। और चाय भी। नहीं कॉफी। आसपास के कई साथियों को बुलाया। इनसे मिलो। अट्ठारह साल बाद मिला है।
वो बहुत खुश था। और मैं दिल में बसे अट्ठारह साल पहले वाले गौरांगो की तुलना इस सामने बैठे एकदम उलट गौरांगो से कर रहा था।
शाम उसने मुझे चाय पर घर बुलाया। अपनी पत्नी और अड़ोसी-पडोसी से मिलाया। वो बहुत उत्तेजित व भावुक था। मुझसे कहीं ज्यादा।
उसके बाद मैं उससे हर दूसरे-तीसरे दिन मिलने लगा। कभी ऑफिस में और कभी घर जाकर। मैं छूटे हुए अट्ठारह साल का गैप जल्द जल्द से भरना चाहता था।
दो साल तक ये सिलसिला जारी रहा। मगर नियति में कुछ और लिखा था।
अक्टूबर की उस रात मैं मिल कर आया था। वो ठीक था। अगली सुबह खबर मिली - गौरांगो नो मोर। हार्टफेल।
भारी मन से विदा किया। इतनी जल्दी बिछुड़ना था तो न ही मिलते। अच्छा होता।
जब भी क्रिकेट के आंकड़े देखता हूं बड़ी शिद्दत से याद आती है। वो आज होता तो इस कंप्यूटर युग में जाने किस बुलंदी पर होता।
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09-10-2016 mob 7505663626
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