Monday, October 31, 2016

भाभी जी के हाथ का समोसा

-वीर विनोद छाबड़ा
आजकल राष्ट्रप्रेम का ज़माना है। एक साहब इज़्ज़ा-पिज़्ज़ा की बजाये देशी व्यंजन समोसा खाने की सलाह दे रहे थे। हम उनकी अज्ञानता पर मुस्कुरा दिए। उन्हें मालूम नहीं कि यह समोसा भी कहीं ईरान-तुरान से आया है। सोचा राज को राज रहने दो। ऐसा न हो कि ईरान आंखें तरेरे और इधर हमारे मुल्क में समोसे पर शामत आये। इसकी कमाई पर पलने वाले हज़ारों छोटे-बड़े हलवाई बर्बाद हो जायें।
एक अस्पताल के पास एक ढाबा है। दिन भर वो समोसे तलता है। बहुत उम्दा समोसे हैं। दूर दूर से लोग लेने आते हैं। अस्पताल के डॉक्टर और मरीज़ तक समोसे खाते हैं। समोसे का आवरण मैदे का है इसलिये हलवाई ख्याल रखता है। इसमें जीरा और ऐज़वैन भी डाल देते हैं ताकि गैस्टिक न करे।
हमने तो तरह-तरह के समोसे खाए हैं। कीमा युक्त भी और नूडल्स वाले भी। लेकिन जो मज़ा आलू वाले समोसे में मिला वो किसी और में नहीं। हर शहर की हर गली-मोहल्ले में एक अदद समोसा स्पेशलिस्ट ज़रूर है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक। व्यंजनों के नाम से गलियां हैं। शायद कोई समोसे वाली गली भी हो। तनिक सरहद के पास पहुंचिए। लाहोर से भी समोसे की खुशबू आती मिलेगी। नेपाल, भूटान, श्रीलंका और बांग्लादेश वाले भी समोसे के प्रति हमारे जैसा ही दिल रखते हैं।

समोसा खाने का अपना अपना जायका है। समोसा ब्रेड स्लाइस बीच रख दो। खट्टी-मीठी चटनी/टमाटो सॉस के साथ तो खूब मज़ा मिलता ही है। एक साहब को रसगुल्ले की बची चाशनी के साथ खाते देखा। अपने चौराहे पर सुबह-सवेरे तमाम ऑफिस जाने वाले तो समोसा-जलेबी विद दही का नाश्ता करते हैं।
अब तो गली-मोहल्ले से लेकर बड़े-बड़े कॉर्पोरेट हाउस की पार्टियों में भी समोसे की घुसपैठ है। एक बीएचके से लेकर सेवन बीएचके का अपार्टमेंट्स में रहने वालों के ओवन में रखा देखा है। इज़्ज़ा-पिज़्ज़ा के मुकाबले बहुत सस्ता और कैलोरी से भरपूर भी है। बड़े में ३०० कैलोरी और छोटे में १०० कैलोरी मौजूद है। १३-१४वीं शताब्दी में मध्य-एशिया के तिजारती इसे भारत लाये थे। अमीर खुसरो और फिर इब्ने बतूता ने इसका ज़िक्र किया है। शुरुआती दौर में मसालेदार मीट के साथ काजू और बादाम भरा गया। सिर्फ़ शाही घरानों में परोसे जाने का रिवाज़ था। लेकिन जल्दी ही महलों के ऊंची-ऊंची चारदीवारी फांद यह जन-जन में मक़बूल हो गया। पुराने दिग्गज इसकी आकृति के दृष्टिगत तिकोना भी कहते हैं।
अपने उत्तर भारत में आलू का समोसा प्रसिद्ध है। सैकड़ों साल हो गए। रत्ती भर भी कमी नहीं आई इसकी आकृति में। तिकोनी शक्ल में पैदा हुआ और आज तक वही है। सिनेमा में भी घुस गया। जब तक रहेगा समोसे में आलू, तेरा रहूंगा ओ मेरी शालूबिहार में कभी एक राजनीतिक जुमला भी रहा - जब तक समोसे में आलू है तब तक बिहार में लालू है।

उस दिन एक मित्र घर बहुत दिनों बाद जाना हुआ। भाभी जी ने बड़े गर्व से गर्मागर्म समोसे परोसे। हमने खुद बनाये हैं, पहली बार। हम थोड़ा सशंकित हुए। तजुर्बा तो नहीं है हम पर? मित्र ने आश्वस्त किया। चार लोग खा चुके है और सही सलामत हैं। उनमें से एक हम साक्षात उपस्थित हैं।
हमने एक समोसा खाया। वाकई बहुत अच्छा था। न नू करते हुए दूसरा भी भकोस गए। मित्र ने कहा, टमाटो सॉस के साथ लेते तो मज़ा आता।
हमने कहा - हमें समोसा सादा ही पसंद है। तभी नेपथ्य से आवाज़ सुनाई दी। पागल है कोई, सादा समोसा खाता है। सुन कर अनसुना करने की आदत हमारी है नहीं। हमने पलटवार किया। सॉस के साथ लेते तो भाभी जी के हाथ के हुनर का पता ही नहीं चलता।

इस तरह तीन फायदे हुए। एक, पागल कहने वाले को जवाब मिल गया। दूसरी, भाभी जी के हाथ की सच्ची तारीफ़ भी हो गयी। और तीसरा, भविष्य की उम्मीद भी बनी रही यानि कि समोसे परोसने का सिलसिला यूं ही जारी रहेगा। 
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Published in Prabhat Khabar dated 31 Oct 2016
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