Tuesday, February 14, 2017

गुरू के गुरू

-वीर विनोद छाबड़ा
सुकरात के बारे में तो सबने सुना है।
गुरुओं के गुरू - अफ़लातून। ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका हल इनके पास नहीं था। सबको संतुष्ट करके ही वापस करते। जानते-बुझते हुए भी ज़हर का प्याला पी गए थे।
एक दिन एक शिष्य ने पूछा - गुरू जी आपका भी कोई गुरू होगा।
सुकरात ने कहा - हां, मेरा भी गुरू है। दुनिया भर के मूर्ख  मेरे गुरू हैं।
शिष्य को आश्चर्य हुआ - यह कैसा मज़ाक कर रहे हैं आप गुरूवर? सच बतायें न।
सुकरात को ऐसे मज़ाक करने की आदत भी थी।
सुकरात ने कहा - कोई मज़ाक नहीं है यह। मैं इसे अभी सिद्ध भी कर देता हूं। जैसे जब कोई किसी को मूर्ख कहता है तो सबसे पहले मैं उस कारण विशेष की तलाश करता हूं जिस कारण से उसे मूर्ख कहा गया। उस कारण को तलाश करने के बाद मैं उस कारण को खुद में तलाश करता हूं कि ऐसा तो कहीं कि यह मूर्खतास्पद कारण मुझ में मौजूद हो। हो सकता है भविष्य में इस मूर्खतास्पद कारण से लोग मुझे भी मूर्ख कहें।
अगर वो कारण मुझमें विद्यमान है तो सर्वप्रथम मैं उस मूर्खतास्पद कारण को अपने अंदर से निकाल बाहर करूंगा। तब निश्चित हो जाएगा कि मैं मूर्ख नहीं कहलाऊंगा। इस प्रकार मैंने एक मूर्ख से शिक्षा प्राप्त की। वो मूर्ख मेरा गुरू ही हुआ न। मैंने अब तक जो शिक्षा प्राप्त की है इन मूर्खां से ही प्राप्त की। इस प्रकार सब मूर्ख मेरे गुरू हैं।

शिष्य ने संतुष्ट होकर अपनी राह पकड़ी।
नोट - कबीर दास भी कुछ ऐसा ही कहा करते थे -
बुरा जो देखन मैं  चला, बुरा न मिलिया कोय
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय। 

अर्थात दूसरों को बुरा या मूर्ख कहने से पहले अपने दिल में झांक लेना चाहिए। बचपन में ऐसी कहानियां नानी-दादी बहुत सुनाया करती थीं। और कहानी ख़त्म होने से पहले हम अक्सर सो भी जाया करते थे। 
---
14-02-2017 mob 7505663626
D-2290 Indira Nagar
Lucknow - 226016

No comments:

Post a Comment