Tuesday, February 7, 2017

ज़हीन दिमाग़, बस पढ़ने में मन नहीं लगता

- वीर विनोद छाबड़ा
पड़ोस में रहने वाला बच्चा आज फिर बुरी तरह पिटा। कारण था - नवें दरजे में फेल होना।
पढाई में मन ही नहीं लगता उसका। दिन भर क्रिकेट खेलना और इधर-उधर आवारागर्दी करना। स्कूल से भी फ़रार रहता है अक़्सर। तीन साल हो गए हैं फेल होते हुए। स्कूल वाले कहते हैं आपके बच्चे के कारण स्कूल की बदनामी होती है। बच्चे को स्कूल से हटा लीजिये। हम पास का रिजल्ट और टीसी दे देंगे। माता-पिता अगली क्लास में एडमिशन के चक्कर में बार बार स्कूल बदलते हैं। यानी टेक्निकली वो बच्चा छट्टा दरजा पास नहीं है अभी तक।
लेकिन माता-पिता दुनिया को दिखाने के लिए बड़े गर्व से कहते हैं कि उनके बेटा दिमाग़ से बहुत तेज है, बस पढ़ने में ही मन नहीं लगता।
इसी बात पर हमें याद आते हैं केदार नाथ सिंह उर्फ़ ठाकुर के.एन. सिंह। साठ के दशक के प्रारंभिक दौर में वो मल्टी स्टोरी रेलवे कॉलोनी के फ़ास्ट बॉलर हुआ करते थे। गुस्सैल किस्म के थे इसलिए कप्तानी भी उन्हीं से कराई जाती थी ताकि विपक्षी टीम पर दबदबा बना रहे। वो हाई स्कूल में कैसे पहुंचे, यह तो हमें मालूम नहीं, लेकिन छह साल तक लगातार हाई स्कूल में फ़ेल होने का मोहल्ला रिकॉर्ड ज़रूर उन्होंने स्थापित किया। हमने सुना था कि यूपी बोर्ड का भी कोई कीर्तिमान बराबर किया था उन्होंने। एक साल और फ़ेल होते तो वो कीर्तिमान ध्वस्त हो जाता।
हमारे मोहल्ले के कई लड़कों ने उनके साथ हाई-स्कूल का एग्ज़ाम दिया। वो लोग बीए-एमएम कर गए। कुछ नौकरी करने लगे। एक आध की तो शादी भी हो गयी और गोद में बच्चा भी आ गया। लेकिन ठाकुर केएन सिंह वहीं हाई स्कूल में ही रिसर्च करते रहे। इस रिसर्च में हमने भी उनका दो साल साथ दिया था।
केएन सिंह की मां भी यही कहा करती थी - मेरे बेटे के दिमाग़ जैसा किसी और का दिमाग़ नहीं। ज़रूर यूपी बोर्ड में कोई बैरी बैठा है हमारे ख़ानदान का।
हम दोस्तों को भी ऐसा ही लगता था। अर्थशास्त्र की बात हो या पॉलिटिक्स या फिर सामाजिक दुनियादारी, हर मामले में केएन सिंह की टिप्पणी सटीक होती थी। उनकी ओपिनियन की बहुत कद्र भी हमलोग करते थे।

लेकिन न जाने क्या होता था कि एग्ज़ाम में पेपर सामने आया नहीं कि ठाकुर केएन सिंह के पसीने छूटने लगते थे।
बहरहाल, जैसे-तैसे तृतीय श्रेणी में उन्होंने हाई स्कूल पास कर ही लिया। बल्कि यह कहना बेहतर होगा कि वो पास कराये गए। यह बात हम कुछ मित्र लोग ही जानते थे। उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़ नहीं देखा। बीए, एलएलबी हो गए। रेलवे की कचेहरी में वकील हो गए।
१९८२ में हमने मल्टी स्टोरी छोड़ दी। हम इंदिरा नगर चले गए और वो हमसे विपरीत एलडीए कॉलोनी। नौकरी, घर-परिवार में व्यस्तता के कारण मिलना-जुलना बस सरे राह ही होता था। लेकिन केएन सिंह कभी नहीं दिखे। कई साल बाद किसी ने बताया था वो बिहार के छपरा के रहने वाले थे, वहीं चले गए, वक़ालत करने।
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