Thursday, February 2, 2017

काश! हम भी महापुरुष होते।

- वीर विनोद छाबड़ा
बचपन और किशोर अवस्था की ज्यादातर बातें हम भूल जाते हैं। लेकिन एक-दो यादें यदा-कदा गुदगुदी करती रहती हैं।
१९६५ की बात है। हम १४ प्लस थे। भोपाल में हम मामा के घर गर्मी की छुट्टियां मना रहे थे। छोटा ताल और बड़ा ताल हमें बहुत लुभाता था। तक़रीबन रोज़ ही सुबह टहलने निकल जाते। 
एक दिन मामा के साथ न्यू मार्किट पर टहल रहे थे। मामा के एक दोस्त मिले। मोटे मोटे लैंस वाले चश्माधारी। यों चश्माधारी हम भी थे। लेकिन किसी दूसरे चश्माधारी को देख हमें अत्यंत प्रसन्नता हासिल होती ही थी। साथ ही साथ फ़ीलिंग आती थी मानो जन्मजन्मांतर से साथ है। अपनापन महसूस होता था। चश्मा को चश्मा मिले करके लंबे हाथ। दिल करता था ज़ोर से चिल्लाएं - बोलो, चश्माधारियों की जय।
बहरहाल, हमने महसूस किया कि उस व्यक्ति की एक आंख गड़बड़ है। कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना। तब हमने बहुत गौर से देखा। सचमुच वो एक आंख वाला था। 
जब वो चला गया तो हमने मामा से इस बारे में पूछा। उन्होंने पुष्टि की - बचपन में एक एक्सीडेंट में उसकी आंख चली गयी थी। स्कूल में बच्चे चिढ़ाते थे। तब नकली आंख लगवानी पड़ी। लेकिन एक आंख से उन्हें साफ़ दिखाई देता है। अभ्यस्त हो गए हैं। आज बड़े अफ़सर हैं। दुनिया में कई लोग हैं जिन्होंने एक आंख के बावज़ूद कई कारनामे किये हैं। महाराजा रणजीत की एक आंख थी। और नवाब पटौदी तो एक आंख से बेहतरीन क्रिकेट खेलते हैं।
हमें अफ़सोस हुआ कि हम उनका मज़ाक उड़ाने के मूड में थे।
तभी मामा ने हमारा मूड फ्रेश कर दिया - एक आंख होने से परेशानी तो है ही। लेकिन फ़ायदा भी है। बताओ क्या है फ़ायदा?
हमने एक क्षण भी नहीं लगाया बताने में - वो दुनिया को एक नज़र से देखता है।

हम कोई दार्शनिक नहीं थे। यों हम कभी हाज़िर जवाब बंदे नहीं रहे। बस अनायास ही मुंह से निकला था। मामा बहुत खुश हुए। इसका हमें घर पहुंच ईनाम भी मिला। नानी ने हमारा सर्वप्रिय मिष्ठान बेसन का हलवा बनाया।
इस जवाब का हमारे मन-मष्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा। वो दिन है और आज का, हम दुनिया को एक नज़र से देखते हैं। न कोई छोटा न बड़ा, न जात और न पात, और न धर्म में भेद-भाव। हम किसी राजनैतिक दल के अनुयायी नहीं हैं। लेकिन वोट उसी पार्टी और कैंडिटेट को देते हैं जो सामाजिक सद्भाव की बात करे।
कभी कभी सोचते हैं, काश! हम कोई महापुरुष होते। तब हमारा यह विचार हमारा नाम लेकर अक्सर उद्धरित किया जाता। ठीक ऐसे ही जैसे - रामचंद्र कह गए सिया से, इक दिन ऐसा आएगा, हंस चुगेगा दाना-दुनका कौवा मोती खायेगा
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