Saturday, February 4, 2017

अब तो बस कलेक्शन ही गिना जाता है

-वीर विनोद छाबड़ा
३० से लेकर ८० तक के दशक में सिनेमा हाल ठसाठस भरे रहते थे। ९० के दशक में वीसीआर और पायरेटेड विडियो कैसेट्स ने सिनेमा जगत में भारी उथल-पुथल मचाई थी। सिनेमा देखने वालों की संख्या घटने लगी थी। लेकिन इसके बावज़ूद  मनोरंजन का एक मात्र साधन सिनेमा ही हुआ करता था। विवाह समारोह प्रधान 'हम आपके कौन हैं' लगातार ५० हफ्ते चलती रही तो इसलिए कि आखिर बारात का मामला है, सबके साथ ही झूमना-नाचना है। 
पुराने दौर में सफ़लता का एकमात्र पैमाना होता था, फिल्म का लंबी अवधि तक सिनेमा हाल में चलना। बढ़िया फ़िल्म हो बात ही निराली। आठ हफ्ते से लेकर पंद्रह हफ्ते यानि १०० दिन फिल्म चल गयी तो समझो फिल्म ने पैसा वसूल लिया। लो-बजट की फिल्म हुई तो समझिये हो गई हिट। प्रोड्यूसर-डायरेक्टर मार्किट में स्थापित हो गए। और फिर २५ हफ़्ते यानी सिल्वर जुबली हो गयी तो सुपर हिट फिल्म। सुपर-डुपर फिल्म का मतलब होता था ५० हफ्ते मतलब गोल्डन जुबली। अख़बारों में बड़े-बड़े पोस्टर छपते। सिनेमा घरों को कागज़ की रंगबिरंगी झंडियों से सजाया जाता। रात झिलमिल-झिलमिल रंगीन बत्तियां जलतीं। शो के दौरान दर्शकों में मिठाई बटती थी।
साल में चार-पांच फ़िल्में ही वास्तविक सिल्वर जुबली तक पहुंचतीं थीं। घिसट-घिसट कर जुबली तो कई मना लेतीं। किसी शहर में किराये पर सिनेमा हाल का इंतज़ाम कर लिया जाता था। मुगल-ए-आज़म, बॉबी, पाकीज़ा, दुल्हन वही जो पिया मन भाये, अंखियों के झरोंखों से आदि अनेक फिल्मों की गोल्डन जुबली कई बड़े शहरों में हुई। कोई कोई फिल्म किसी ख़ास एरिया में खूब चलती थी। जैसे राजश्री की लो-बजट 'राजा और रंक' ने बनारस और लखनऊ में एक साल तक खूब धूम मचाई। उन दिनों सिनेमा हालों में शोकेस में १०० दिन, सिल्वर जुबली और गोल्डन जुबली की ट्रॉफियां सजा कर रखी जाती थीं। 
 
यों सबसे ज्यादा चलने वाली पहली फ़िल्म बनी थी - १९४३ में रिलीज़ बॉम्बे टॉकीज़ की 'किस्मत' जिसका मशहूर गाना था - दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है...कलकत्ता के रॉक्सी थिएटर में यह १८७ हफ्ते चली। इस रिकॉर्ड को १९८० में 'शोले' ने मुंबई के मिनर्वा में लगातार पांच साल तक चल कर तोड़ा। इतना ही नहीं इसने १०० शहरों में सिल्वर जुबली और ६० शहरों में गोल्डन जुबली मनाई। इस बीच राजकपूर की 'बरसात' ने १९५१ दो साल तक चली। के.आसिफ की 'मुगले आज़म' भी तीन साल तक मुंबई के मराठा मंदिर में चल गयी। सूची बहुत लंबी है। लेकिन फिल्म को हिट बनाने का श्रेय उन लाखों दर्शकों को जाता था जो फ़िल्म को एक बार नहीं बार-बार देखते थे। सुना है कि मशहूर पेंटर दिवंगत फ़िदा हुसैन साहब ने 'हम आपके हैं कौन' ६० मर्तबा देखी थी। 

इस शताब्दी के उदय के साथ ही सिनेमाहाल बंद होने लगे तो चार से लेकर सात स्क्रीन वाले मल्टीप्लेक्स और सिनेप्लेक्स का ज़माना आ गया। एक शहर में एक दिन में एक ही फिल्म के ३०-४० शो तक होने लगे। व्यवसायिक दृष्टि से सिनेमा को ज़रूर नयी ज़िंदगी मिली। लेकिन सिंगल स्क्रीन सिनेमाहाल वालों हाल बुरा ही रहा। बड़े शहरों में बीस साल पहले की संख्या की तुलना में आज दसवां हिस्सा भी नहीं रह गए हैं। फ़िल्म का रन हद से हद से पांच-छह हफ़्ते रहता है। सौवां दिन मनाना तो सपना हो गया। अब तो बस गिना जाता है कि पहले दिन बॉक्स पर कलेक्शन और हफ़्ते भर का कलेक्शन कितना हुआ? आल इंडिया सौ करोड़ या दो सौ या तीन सौ करोड़। नफ़ा-नुकसान तो लागत के सापेक्ष होता है।
सिल्वर जुबली और गोल्डन जुबली शब्दों का पेटेंट तो शादी-शुदा ज़िंदगी के नाम हो गया। यों जश्न मनाने का बहाना तलाशने वाले कुछ लोग शादी के १०० दिन पूरे होने पर भी जश्न मना लेते हैं। और कुछ सरकार के १०० दिन पूरे होने पर।
हां, इस दौरान कुछ फ़िल्में अपवाद भी रहीं। इसमें एक है, १९ अक्टूबर १९९५ को रिलीज़ हुई - दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे। पिछले साल १९ फरवरी को मुंबई के मराठा मंदिर ने १००९ हफ्ते तक फ़िल्म को लगातार चलाने का रिकॉर्ड बनाने के बाद फ़िल्म को उतारने का फ़ैसला किया गया। कारण दर्शकों का अभाव। आख़िरी शो में २१० थे। लेकिन दर्शकों और फ़िल्म प्रोडक्शन कंपनी के उत्साह के चलते थिएटर प्रबंधन को अपना फ़ैसला बदलना पड़ा। कुछ हफ्ते और चली फिल्म। आज की पीढ़ी हैरान होती है - बीस साल में तो एक जनरेशन जवां जाती है।
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Published in Navodaya Times dated 04 Feb 2017
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