Thursday, February 9, 2017

हमारे दद्दा

- वीर विनोद छाबड़ा 
आज हमें न जाने क्यों दद्दा याद आ रहे हैं। लखनऊ की चारबाग़ मल्टीस्टोरी में हम तिमंजिले पर रहते थे और वो नीचे दुमंजिले पर, अपने पैरेंट्स के साथ। उनके पिताजी रेलवे में गार्ड थे। घर में सबसे बड़ी संतान थे। इसीलिए उन्हें सब दद्दा कहते थे। बल्कि उनका नाम ही दद्दा पड़ गया था। आस-पड़ोस छोटा हो या बड़ा उन्हें दद्दा के नाम से ही जानता था। उनके माता पिता भी उन्हें दद्दा पुकारने लगे। यूनिवर्सल दद्दा। असली नाम ही सब भूल गए।
हमें तो तब उनका असली नाम तब पता चला जब वो उन्होंने डॉक्टरी की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। उनके दरवाज़े पर नाम पट्टिका लगी - डॉ. रमेश कुमार श्रीवास्तव। लेकिन हम उन्हें तब भी दद्दा ही कहते रहे। उन्हें बुरा भी नहीं लगता था।
उनके डॉक्टर बनने से हम लोगों को बड़ी सुविधा हुई। जब ज़रा सी छींक आई, न दिन देखा और न रात, किवाड़ खटखटा दिया। दद्दा ने बुखार नापा और टिकिया पकड़ा दी - एक-एक सुबह, दोपहर और शाम। तीन दिन तक। हम खुशी खुशी घर चले आए। पानी के साथ गड़क गए। थोड़ी खट्टी-मीठी लगी। बाद में एक दिन पता चला कि वो हमें 'गोली' दिया करते थे। चूरन की टिकिया पकड़ाते थे। छींक आना भी कोई बीमारी है। वो बताते थे कि कई बीमारियों घरेलू इलाज से ठीक हो जाती हैं। हमारे खरगोश की जब डेथ हुई तो हमें यकीन ही नहीं हुआ। हम दद्दा को बुला लाए थे। उन्होंने ही सर्टिफाई किया अब 'गोशी' दुनिया में नहीं रहा।

उनकी शादी भी एक डॉक्टरनी से हुई। हम लोग बहुत खुश हुए। दद्दा की दद्दी आई है। महिलाओं को तो बड़ा आराम मिल गया। फ्री की अडवाइस। दवा बाज़ार से ले लेना। दोनों सरकारी नौकरी में थे। हफ़्ते में एक आध दफ़े ही आते थे। मिलने वालों का तांता ही नहीं टूटता था।
१९८१ में हमने मल्टीस्टोरी छोड़ दी। सबसे लिंक टूट गया। करीब दस साल पहले एक समारोह में वो हमें मिले थे। बड़ी पोस्ट से रिटायर हो चुके थे, शायद रायबरेली से। उन्होंने हमें अपना कार्ड भी दिया। लेकिन गलती से पतलून के साथ धुल गया, लुगदी हो गया।

उसके बाद वो न जाने कैसे हमारे स्मृति पटल से गायब हो गए। अभी तीन-चार दिन पहले किसी पोस्ट पर पढ़ा कि बंगाल में बड़े भाई को दादा बोलते हैं तो हमें दद्दा याद हो आए। आज हमें फिर उनकी याद हो आई। ईश्वर से कामना करता हूं कि सब सुख हो। 
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09-02-2017 mob 7505663626
D-2290 Indira Nagar
Lucknow - 226016

2 comments:

  1. गलती से पतलून के साथ धुल गया, लुगदी हो गया.....कितने रिश्ते यूँ ही अनचाहे अनजाने में लुग्दी हो गये और हम बस आस लगाये बैठे हैं...यादें सलामत!! बहुत भावपूर्ण!!

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