Monday, January 11, 2016

अब झोलाछाप ऑनलाईन है।

-वीर विनोद छाबड़ा
झोलाछाप लेखक। हंसने की बात नहीं है। एक ज़माना था इनका भी। झोलाछाप डाक्टर की तरह इनके झोले में भी हर मौजू का लेख उपलब्ध। कविता-कहानी, परिचर्चा, रपट जो मैटीरीयल मांगो, सब मिलेगा। तेरी झोली भर दूंगा, संपादक जी। आप हुकुम तो करो।


यह प्राणी हमेशा बड़े लेखक का बचा खाता रहा। बड़ा लेखक, बड़ा कद, बड़ा ईगो, बड़ा परिश्रामिक और जब मूड बना, तभी लिखा। लेकिन संपादक जी को तुरंत चाहिए था। अरे, फलां झोलाछाप को बुलाओ। बाहर बलजीते के ढाबे में बैठा होगा। अभी तड़ से लिख देगा। लेकिन उसके झोले में तो पहले से ही सब मौजूद है।

लीजिये हुज़ूर। और ये थोड़े से हमारी तरफ से। वक़्त-ज़रूरत काम आएंगे। पारिश्रमिक! बेहद संतोषी जीव। छपना मात्र ही बड़ी पूंजी। पट्ठे ने लिखा भी बड़े मन से और खासी खोजबीन के उपरांत। इसी कारण आयु पर्यंत मुफ़लिसी की गिरफ़्त में रहा।

झोलाछाप लेखक की एक अमीर क्लास भी देखी बंदे ने। किसी बड़ी कंपनी में रहा या सरकारी मुलाज़िम। पेट भरा हुआ मगर फिर भी छपास ज़बरदस्त। हाथ में ब्रीफ़केस, क्लीन शेव, गोर गोर मुखड़े पे काला-काला चश्मा और बाईक पर सवार। स्मार्टी नंबर वन। सूट-बूट की सरकार समझो। आनन-फानन में तमाम अख़बारों की परिक्रमा कर डाली। बेचारे मुफ़लिस झोलाछाप बड़ी कातर दृष्टि से इन्हें निहारा करते और बद्दुआ देते कि जा तेरी स्कूटी पंचर हो जावे। पेट्रोल का अकाल पड़े। सिपाही तुझे बिना हेलमेट के इलज़ाम में जेल में ठूंस दे।

झोलछापों में छपास की होड़ का आलम तो यह रहा कि भनक तक न लगने पाती कि किसने किस विषय पर लिखा है? इनके जासूस भी अखबारों में फैले होते। संपादक ने किसी झोलुये को आर्डर दिया नहीं कि दूसरे को ख़बर हो गयी। वो 'पहले' से पहले लिख लाया। संपादक ने भी लपक लिया, इस आशंका से कि पहले वाले का क्या भरोसा?

बंदे ने छपास के मारे अनेक मासूम झोलाछापों को कम प्रसार संख्या वाले दैनिक, साप्ताहिक या पाक्षिक टेबुलाईडों का भी शिकार बनते हुए देखा। बेचारे खुद को पढ़वाने के लिए अख़बार का प्रचार भी करते दिखे।


समय एक जैसा कभी रहा। अखबारों में नये और युवा मालिकान इंग्लैंड-अमरीका से तालीम हासिल आ विराजे। मीडिया इलेक्ट्रॉनिक हो गया। फोटो बड़े होने लगे और लेख छोटे। झोलाछाप यह नहीं समझ पाये कि किसी विषय को 'डेढ़ गुणा डेढ़' के फोटोफ्रेम में कैसे समेटा जाये? और फिर जब अख़बारों के मल्टीसिटी एडीशन छपने लगे तो सारे फ़ीचर्स आनलाईन होकर एक जगह आ गए। हाईस्पीड के ऐसे हाईटेक माहौल में पता ही चला कि झोलाछाप प्रजाति डायनासौर की भांति कब विलुप्त हो गयी।

लेकिन कुछ फीनिक्स टाईप झोलाछाप ने सलवार पहन कर रूप बदल लिया । अब वो आनलाईन लेखक है। उसके हाथ में कलम-दवात की जगह कंप्यूटर-माऊस है, नेटवर्क से जुडा़ है। उसकी उड़ान सिर्फ़ चंद स्थानीय या अखबारों-रिसालों तक सीमित नहीं है। वो विश्वव्यापी है। फेसबुक पर छाया है, ब्लाग में भर भर कर छपास मिटाता है। परंतु एक दिक्कत नयी पैदा हो गयी है। वो बिना खबर दिये कहीं भी डाऊनलोड कर लिया जाता है।

हां, एक बात और, ज्यादातर लेखक कल भी मुफ़लिस थे और आज भी हैं।
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11-01-2016 mob 7505663626
D-2290 Indira Nagar
Lucknow - 226016

3 comments:

  1. Hilarious.Cannot stop myself getting amused.It is very hard these day to find humor in everyday life.

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