Wednesday, February 3, 2016

भगवान मिठाई के भूखे नहीं हैं।

- वीर विनोद छाबड़ा 
कल शाम मंदिर जाना हुआ। यों तो हम निराकार ब्रह्म को मानने वाले हैं। लेकिन फिर भी परिवार की ख़ुशी के लिए जाते हैं।

हमने देखा कि एक १०-११ साल के लड़के ने लिफ़ाफ़े से थोड़ी सी बूंदी निकाल कर दूसरे लिफ़ाफ़े में भरी। उस लिफ़ाफ़े को लपेट कर जेब में रख लिया। और फिर मंदिर में हनुमान जी की मूर्ती के सामने खड़ा हो गया। पुजारी जी ने उसके हाथ से लिफ़ाफ़ा लिया। भोग लगाने का स्वांग किया। आधी से ज्यादा बूंदी उन्होंने निकाल कर एक बाल्टी में डाली। बाकी वापस कर दी। मंगल होने के कारण भीड़ बहुत थी। पंडित जी को कतई फ़ुरसत नहीं थी। लड़के ने स्वयं टीका लगाया। और चरणामृत भी खुद लिया।
उसे देख हमें अपना बचपन याद आया। मंगल के दिन पांच आने मिलते थे, प्रसाद चढ़ाने के लिए। ढाई आने की बूंदी और ढाई आने के चीनी के बताशे।
पहले बूंदी लेते थे और फिर उसके ऊपर बताशे। भीड़ बहुत होती थी। पुजारी जी लिफ़ाफ़े में हाथ डालते और मुट्ठी भर बताशे निकाल लेते थे। बूंदी तक हाथ पहुँच ही नहीं पाया। पूरी की पूरी बच गयी। दो-तीन बार ऐसा किया।
लेकिन शायद पुजारी जी समझ गए। नीचे से लिफ़ाफ़ा मुलायम जो होता था। उन्होंने अगली बार लिफ़ाफ़ा ही पलट दिया और फिर आधी मुट्ठी बताशे लिफ़ाफ़े में डाल दिए। जा तेरा कल्याण हो बच्चा।

लेकिन हम भी पक्के वही थे - तू डाल डाल, मैं पात पात।
अगली बार हमने दो आने के बताशे लिए। पुजारी जी ने हमें घूर कर देखा। आधे से ज्यादा बताशे निकाल लिए। हमने बाकी तीन आने की बूंदी खरीदी। बताशे वाले लिफ़ाफ़े में मिक्स कर दी। जय बजरंगबली।
हम तब भी यही सोचते थे और आज भी हमारी यही सोच है कि भगवान न बताशे खाते हैं और न बूंदी और न ही बर्फी और फल। वो तो अंतर्यामी हैं। तन, मन और धन से भरे हुए। वो भला इंसान नामक तुच्छ प्राणी के चढ़ावे के भूखे थोड़े ही हैं। उनके नाम पर कल भी इंसान खाता था और आज भी खाता है।
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