Saturday, April 15, 2017

तनहा तनहा सफ़ीना

-वीर विनोद छाबड़ा
सैकड़ों रिटायर्ड कर्मी परेशान हैं। उन्हें पेंशन देर से मिलती है। मेडिकल का भुगतान नहीं होता। तमाम एरियर का भुगतान बाकी है। आज मुख्यालय पर अपनी विपदा सुनाने के लिए जमा हैं। बमुश्किल गिरते-पड़ते दूर-दूर से आये हैं। किसी के घुटने में दर्द है तो किसी के सर में। किसी को ब्रेन ट्यूमर है तो किसी को दिख नहीं रहा। 
इन्हीं में सत्तर साल की विधवा सफ़ीना भी है। वो फैमली पेंशनर है। नाना प्रकार की व्याधियों से पीड़ित। चेहरे पर पड़ी अनगिनित गहरी झुर्रियां और उनमें से बहता पसीना। उसके संघर्षमय अतीत की दास्तान बयां कर रहा है। पति लियाकत को गुज़रे मुद्दत हो चुकी है। एक बेटा था। कुछ अरसा पहले हादसे का शिकार हो गया। उसके जाने का बहु को ऐसा सदमा लगा कि कुछ दिन बाद वो भी गुज़र गयी। पोते-पोती को वही पाल-पोस रही है। उनकी पढाई और घर का खर्च फैमिली पेंशन और सिलाई-कढ़ाई से होने वाली थोड़ी-बहुत आमदनी से ही चलता है।
कुछ दिन पहले बैठे-ठाले एक नयी मुसीबत आन पड़ी। सीने में ज़बरदस्त दर्द उठा। पसीना-पसीना हो गयी। डाक्टर ने हार्ट की तकलीफ़ निकाली। बाई-पास सर्जरी की सलाह दी है। तीन लाख की सख़्त ज़रूरत है। थोड़ा इंतज़ाम हो गया है। सातवां वेतन आयोग लग जाए तो आराम हो जाए। पेंशन बढ़ेगी और ऐरियर मिल जाएगा। इससे ऑपरेशन हो जाएगा। उसका पिछले वेतन आयोग का भी कुछ ऐरियर बाकी है। बाबू बोलता है बीस हज़ार दो और अपना पैसा लो। मगर वो तैयार नहीं है। झिड़क दिया था गलीज़ को भरी महफ़िल में। थप्पड़ नहीं मारा बस। कह दिया था - मर जाऊंगी, मगर घूस नहीं दूंगी।
मरहूम शौहर लियाक़त भी अपने उसूलों का पक्का था। इलेक्ट्रीशियन था वो। किसी का काम किया। एवज़ में एक प्याली चाय पीना भी हराम समझा उसने। बड़े बड़े अफ़सर तक अपना निजी काम उसी से कराते थे। मगर आज मुंह फेरे बैठे हैं, न उसके नाम को और न उसकी बेवा को पहचानते हैं।
सफ़ीना का अभी बच्चों के लिये जिंदा रहना ज़रूरी है। यह फैमिली पेंशन ही जो उन्हें पढ़ा-लिखा रही है। यह लालसा उसमें जोश भर देती है। वो पूरे दम-खम से चीखती है। अभी तो ये अंगड़ाई है, आगे और लड़ाई है...
उधर से गुज़रता एक नौजवान कर्मचारी फब्ती कसता है - चढ़ी जवानी बुड्ढे नूं। दूसरा बोलता है। शुक्र मनाओ कि पेंशन मिल रही है। 
बूढ़ी सफ़ीना ने यह सुना तो उसके बर्दाश्त की हद टूट गयी। उसके पास खोने को कुछ भी नहीं है। वो लपक कर आगे बढ़ती है। उस कर्मचारी का गिरेबान पकड़ उसे झिंझोड़ देती है -  नासपीटे, कलमुंहे। सत्यानाश हो तेरा। कल तेरा भी वक़्त आयेगा। तू भी पेंशनर बनेगा। मैं तो पा गयी, जितना पाना था।  ऐसा ही चलता रहा तो तेरे टाईम पर तो कुछ भी नहीं बचेगा। एक-एक पैसे को तरसेगा। दोज़ख भी नसीब न होगा तुझे। तब तू याद करेगा मैं बुढ़िया सफ़ीना की।
कुछ प्रेस वाले और चैनल वाले भी खड़े हैं। यह नज़ारा उनका ध्यान सफ़ीना की तरफ खींचता है। उनके कैमरे उसकी ओर लपकते हैं।
सफ़ीना उनसे मुख़ातिब होकर अपनी सारी राम कहानी सुना डालती है।
मीडिया की दिलचस्पी उसमें बढ़ती चली जाती है। लाईव टेलीकास्ट शुरू हो जाता है। सफ़ीना रुंधे गले से अपनी बात कहे जा रही है ऑफिस की इमारत की शान बढ़ाये जाने के लिये करोड़ों रुपये फूंक दिये। मगर हमारी फैमिली पेंशन और एरियर का भुगतान करने की बात आती है तो कहते हैं कि जेब खाली है। जो अपने बुज़ुर्गों को रुलाते हैं वो आम आदमी का क्या ख़ाक़ ख्याल रखेंगे! उन्हें हाय लगे मेरी
तभी विभाग का मुखिया उधर से गुज़रता है। टीवी चैनल के कैमरे और रिपोर्टर उनकी ओर दौड़ते हैं।

सफ़ीना फिर तनहा रह जाती है।
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