Monday, April 3, 2017

लिफ़ाफ़ा तो देते जाओ

-वीर विनोद छाबड़ा
हमारे ऑफिस के एक सहकर्मी मित्र रामेश्वर ने भाई की शादी के उपलक्ष्य में प्रीतिभोज का आयोजन रखा। हमें भी सपरिवार शामिल होने का न्यौता मिला। बच्चे खुश कि बढ़िया-बढ़िया पकवान मिलेंगे खाने को। पत्नी खुश कि आज खाना बनाने से फ़ुरसत।
हम पहली बार जा रहे थे उनके घर। सर्दी के दिन थे। पत्नी-बच्चों को स्कूटर पर लादा और कड़कड़ाती ठंड में चल दिए। उस ज़माने में मोबाईल तो बहुत दूर की बात थी, टेलीफोन भी इक्का-दुक्का होते थे। और हमारे मित्र की गिनती उन भाग्यशालियों में नहीं थी। कार्ड भी हमने नहीं रखा था। बस इतना याद था कि चरही हसन गंज के बगल वाली गली। एक साहब से पूछा तो उन्होंने एक गली की और ईशारा कर दिया। पूछ लीजिये वहां। हम जैसे ही गली में घुसे कि थोड़ी दूर पर रोशनी सजा पंडाल दिखा। यूरेका, यूरेका! मिल गया। एक दर्शनाभिलाषी प्रौढ़ सज्जन दिखे। हमने पूछा - यह राम...
लेकिन बात पूरी होने से पहले ही उन्होंने हमें गले लगा लिया। वेटर को फौरन बुलाकर कॉफी हमारे हाथ में पकड़ा दी।
कॉफ़ी के दो-चार घूंट हमने कॉफ़ी सुड़क ली। ख्याल आया कि ऑफिस का कोई बंदा नहीं दिख रहा है और न रामेश्वर। हमने दर्शनाभिलाषी से उनके बारे में पूछा। उन्होंने हमें सर से पांव तक देखा। लगा भस्म कर देंगे। इससे पहले कि उनकी आग बरसाती नज़रों का अर्थ हम समझ पाते उन्होंने हाथ से काफ़ी का प्याला छीन लिया। मिस्टर यह रामप्रकाश का घर है और उनकी शादी का रिसेप्शन है।
हमें दर्शनाभिलाषी के व्यवहार पर बहुत क्रोध आया। किसी तरह खुद को नियंत्रित किया। शुक्र है कि पत्नी और बच्चों ने कॉफ़ी लगभग ख़त्म कर ली थी। हमने उन्हें स्कूटर बैठाया और घर की और चल दिए। बड़े बेआबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले।

थोड़ी दूर चले ही थे कि स्कूटर की हेडलाइट में हमें एक सूट-बूट वाला दिखा। ज़रूर ये किसी शादी में जा रहा है या लौट रहा है। हमने सोचा कि एक चांस और लिया जाए। भैया, आप रामेश्वर जी के घर जा रहे हैं?
हमारा अनुमान सही निकला। उसने बताया आप ठीक जगह पर खड़े हैं। हम शंकित हुए - लेकिन चरही तो दिख नहीं रही।
वो हंस दिया - चरही तो कबकी गुम हो गयी। अब तो नाम बाकी है। चलिए मैं भी वहीं जा रहा हूं।
वो एक अंधेरी सुरंग टाईप की गली में घुसा और पीछे-पीछे हम भी। पांच मिनट चले नहीं थे कि गली एकदम से खुल गयी। सामने बड़ा सा मकान और उसकी छत पर तंबू-कनात और झिलमिलाती झालरें। नीचे ही खड़े थे हमारे मित्र। जान में जान आई।
उसके बाद हम जब किसी रिसेप्शन या शादी में गए तो पहले खूब फूंक-फांक लिया। मगर इसके बावज़ूद कई बार गलती हुई।

अगली बार अगल-बगल दो जगह प्रीतिभोज के आयोजन थे। मित्र बाहर ही मिल गए। बहुत तपाक से मिले। हमने उपहार वाला लिफ़ाफ़ा पकड़ाया। वो बहुत नाराज़ हुए। इस पर वर-वधु का अधिकार है। अंदर जाकर उन्हें आशीर्वाद दें और फ़ोटो भी खिंचवाएं। हमने उनकी आज्ञा का पालन किया। और अपनी कमजोरी आलू की टिक्की पर टूट पड़े। तभी हमने गौर किया कि कोई जान-पहचान का नहीं दिख रहा। हमारा माथा ठनका। बाहर निकल कर दूसरे तंबू में घुसे। काटो तो खून नहीं। सही जगह तो यह है। तब हमने दूसरी बार कान पकड़े कि लिफ़ाफ़ा देने की जल्दबाज़ी न करो, पहले पुष्टि कर लो।
मगर एहतियात के बावज़ूद गड़बड़ी हो गयी। एक प्रीतिभोज में हमने सपत्नीक डटकर भोजन कर लिया। मित्र से विदा ली और सीधे घर पहुंच गए। जब हम पतलून बदल रहे थे तो पता चला कि लिफ़ाफ़ा  तो जेब में ही रह गया है। पत्नी रोकती रही, लेकिन हम असूल के पक्के दस किलोमीटर उलटे पांव लौट कर ही माने।

उस दिन के पश्चात हमने लिफ़ाफ़ा ऊपर शर्ट की जेब में रखना शुरू कर दिया ताकि हम भूलें नहीं। हमारा लिफ़ाफ़ा देख कर दूसरों को भी इबरत हासिल हो और अगर हम भूलें भी तो कोई याद दिला दे, फ्री का खा कर जा रहे हो? लिफ़ाफ़ा तो देते जाओ।
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Published in Prabhat Khabar dated 03 April 2017
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