Monday, April 24, 2017

आजा मेरी गाड़ी पे बैठ जा

- वीर विनोद छाबड़ा
सत्तर के दशक का शुरुआती दौर हमारे यूनिवर्सिटी दिन थे। पढाई कम, सपनों में टहलना और लफंटगिरी ज्यादा।

आवागमन के तीन ही साधन, बस, रिक्शा या साईकिल। स्कूटर और मोटरसाइकिल वाले और कारों वाले बहुत कम थे।   मगर पौ-बारह रहती थी इनकी। लड़कियों खूब लिफ्ट लेती थीं।   
हम जल-भुन कर राख हो जाते। लेकिन निराशावादी हम कभी नहीं रहे। अपनी साईकिल को देखते और कल्पना करते कि कभी न कभी तुझे पंख लगेंगे। हवा में उड़ेगी तू। तब हम शान से कहेंगे - ओ ख़ूबसूरत हसीना, आजा मेरी स्कूटर पे बैठ जा। बल्कि यह भी नहीं कहना पड़ेगा। लड़की खुद-ब-खुद बैठ जायेगी।
खैर, वो दिन भी आया। नौकरी लगी। शादी हुई। दहेज़ में स्कूटर लेना हमारी शान के विरुद्ध था। सच तो यह भी है कि वो तो हमसे भी कहीं ज्यादा फटीचर थे। बहरहाल, हमें ऑफिस से स्कूटर क्रय हेतु एडवांस मिला। लेकिन रक़म इतनी कम थी कि एक अदद मोपेड ही खरीद सके। यह पूरे नौ साल रही हमारे पास। इस बीच में हमारे आस-पास के माहौल में लड़कियों का दख़ल ख़त्म हो चुका था। महिलायें ही अपने को लड़की समझ कर इधर से उधर इतराती घूमती-फिरती थीं। चलिए, हमें यह भी मंज़ूर था। लेकिन इसके बावजूद किसी महिला ने लिफ़्ट नहीं मांगी। हम अपने दो बच्चों और एक अदद पत्नी को बैठा कर लखनऊ की सैर कराते रहे।
एक हमदर्द ने समझाया - अबे चूतिये, मोपेड वाले से भला कभी किसी लड़की या महिला को लिफ्ट मांगते हुए तूने देखा या सुना?

हमने माथा ठोंका - सही बात। यह तो हमने कभी सोचा ही नहीं।
संयोग से उन दिनों हमारे दफ़्तर में फिर स्कूटर एडवांस बंट रहा था। नंबर लग गया हमारा भी। सड़क पर नई-नई उतरी काईनेटिक होंडा ले ली। सुर्ख़ लाल रंग चुना, यह सोच कर कि ये रंग बहुत पसंद करती हैं महिलायें।
लेकिन हम फिर भी बदकिस्मत रहे। महिलाएं आजू-बाजू से निकल जातीं। नज़दीक एक भी न फटकी। किस्मत में पत्नी ही लिखी थी। उसी को लिफ्टवाली समझ कर टहलाते रहे।
एक अपवाद ज़रूर रहा। एक महिला ने लिफ़्ट मांगी थी। मगर उसने बीच में फाईल बोर्ड रख लिया। कहीं करंट न लग जाये। लेकिन आशा ने हमारा साथ कभी नहीं छोड़ा। हम होंगे कामयाब एक दिन, मन में हो विश्वास
जहां चाह, वहां राह। संयोग हम पर फिर मेहरबान हुआ। दफ़्तर में कार एडवांस बंटा। हमारा भी नंबर लग गया। हम कार वाले हो गए। फीनिक्स रेड मारूति ८०० हमारे दरवाज़े पर खड़ी हो गयी।
लेकिन सपना, सपना ही रहा। हम कार का दरवाज़ा खोल कर बैठे रहे। जैसी भी हो, आ जाओ। परंतु पत्नी के सिवा कोई महिला नहीं आई। हां मोहल्ले की दो-तीन महिलाओं को प्रसूति कराने ज़रूर ले गए। अब अगर इसे लिफ़्ट की श्रेणी में सम्मिलित किया जाए तो कुछ हद तक हम ज़रूर अपने उद्देश्य में सफल हुए।

हमारी विपदा पर उसी हमदर्द ने फिर समझाया - तुम रहोगे लल्लू प्रसाद ही। अबे, चश्मे वाले को कौन लिफ़्ट मारेगी? चश्मेवाली भी नहीं नज़दीक नहीं फटकती।  और तेरा चश्मा भी कोई छोटा-मोटा तो है नहीं। पूरे माईनस-१२ इंची मोटा शीशा। कोई उतार दे तो अपना हाथ तक न देख पाओ।
संयोग ज़िंदाबाद। वो हमें बार बार मौके देने से बाज़ नहीं आया। हमारी दोनों आंखों पर मोटा मोतिया बिंदु उतर आया। फ़ौरन ऑपरेशन करा डाला। छुट्टी मिल गयी चश्मे से। लेकिन हमारी ज़िंदगी बैरंग ही रहनी थी। बदकिस्मती से पैदाइशी रिश्ता रहा। शायद कुछ मैन्युफैक्चरिंग डिफेक्ट था।  
इस बीच हमने कार भी बदल डाली। सिल्वर सिल्की वैगन-आर ले आये। लेकिन किस्मत न बदलनी थी, और न बदली। अब तो रिटायर हुए भी छह साल हो चुके हैं। अपनी कार के बावजूद सपत्नीक लिफ़्ट लेने वाले कंजूसों की संख्या बढ़ रही है।

हम अपने नौजवान मित्रों को समझाया करते हैं - लाल, पीला, नीला, हरा या गुलाबी हवाई जहाज़ हो, जितना मर्ज़ी सज-संवर लो, परफ़्यूम की बोतल उड़ेल लो, दस हज़ार वाला गॉगल चढ़ा लो, लिफ्ट मांगने वालियों को सरप्राइज़ गिफ़्ट का ऐलान भी कर दो। ये सब बेकार है, अगर तुम्हारी क़िस्मत में लड़की या महिला टहलाना नहीं है।  
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25-04-2017 mob 7505663626
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D-2290 Indira Nagar
Lucknow - 226016 

1 comment:

  1. यानि
    दिल के अरमां आँसुओं में बह गए
    रोचक प्रस्तुति

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