Friday, April 21, 2017

हमारा बेस्ट क्रिटिक फ्रेंड

-वीर विनोद छाबड़ा
जब कभी दफ्तर के दो-चार पुराने यार मिल कर बैठते हैं तो महेश चंद्र सिन्हा की याद ज़रूर आती है। यारों के यार थे वो।
ऑफिस के ज्ञानी-ध्यानी ऑफिसर्स में गिनती थी उनकी। कई मामलों में वो हमारे आदर्श थे। सीनियर होने के नाते किसी खास मुद्दे पर उनसे सलाह लेना हमेशा फायदेमंद रहा। कई बरस तक हमने ऑफिस में एक ही रूम शेयर किया। लंच पार्टनर भी रहे। घर-बाहर, देश-विदेश हर टॉपिक पर गर्मागर्म बहस होती थी उनसे। हम मानते थे हम एक-दूसरे के बेस्ट क्रिटिक हैं।
वो धुआंधार सिगरेट पीते और पिलाते थे। एक निजी काम से वो अमृतसर गए। वहां स्वर्ण मंदिर भी गए। पांच-छह घंटे वहां बिताये। वहां के पवित्र वातावरण ने उन्हें बहुत प्रभावित किया। सोचा सिखों के इतने बड़े तीर्थ आया हूं तो एक-आध बुराई छोड़ कर ही जाऊंगा। ख्याल आया कि सिख भाई सिगरेट से सख्त घृणा करते हैं। छत्तीस साल पुरानी बुराई एक झटके में छोड़ दी। उनके इस त्याग से मेरे हमको भी सिगरेट छोड़ने की प्रेरणा मिली। 
हमने अक्सर नोटिस किया है कि ये ज्ञानी-ध्यानी लोग ज्ञान बांटने के चक्कर में अपने शरीर को जाने-अंजाने तक़लीफ़ देते रहते हैं। एक दिन सिन्हा जी के दांत में दर्द उठा हुआ। फुटपाथिए दन्त चिकित्सक के पास पहुंच गए जहां से हम बामुश्किल उन्हें खींच कर लाये। लेकिन भाई माने नहीं। किसी झोलाछाप डॉक्टर से दवा ले आये। वही हुआ। दर्द बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की। आख़िरकार स्पेशलिस्ट की शरण में जाना। तब तक दो दांत जवाब दे चुके थे। उन्होंने जानवरों के डॉक्टर के पास जाने में भी परहेज़ नहीं किया। जबकि पत्नी उनकी एक सरकारी अस्पताल में स्टाफ़ सुपरिंटेंडेंट थी। इस नाते तमाम नामी डॉक्टर उनसे परिचित थे।
सिन्हा जी हमसे तीन बरस बड़े थे। पहले रिटायर हुए। अक्सर भेंट होती रहती थी। एक कार्य विशेष के लिए उन्हें ऑफिस ने छह महीने कॉन्ट्रेक्ट दिया। कुछ दिन वो नहीं आये। चिंता हुई। फ़ोन किया तो पता चला कि अस्वस्थ हैं। खैर, करीब पंद्रह दिन बाद वो आये।
बताने लगे - पेट में थोड़ा दर्द था। इधर-उधर के घरेलु नुस्खे और अपनी डॉक्टरी आजमाई। जब दर्द बढ़ा तो भागे डॉक्टर के पास। जॉन्डिस शक़ किया गया। दवा दी और कुछ टेस्ट बताये। दवा तो उन्होंने ले ली। लेकिन टेस्ट नहीं कराये। कहने लगे सब धंधा है डॉक्टरों का। कमीशन के चक्कर में ये टेस्ट वो टेस्ट और महंगी-महंगी दवायें। अब सब ठीक-ठाक हो गया है।
दूसरे दिन पता चला कि भाई के पेट में फिर दर्द उठा है। एमआरआई में लीवर प्रॉब्लम दिखी है। इलाज़ चला। कुछ दिन बाद ठीक हो गए।

लेकिन बीमारी को जड़ से निकालने के चक्कर में उन्होंने कभी आयुर्वेदिक और कभी यूनानी पैथी की शरण ली। लेकिन कुछ दिनों बाद फिर वही प्रॉब्लम। लीवर में दर्द उठा। इस बार इतना भयंकर कि अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। डॉक्टर ने कहा - वेरी सीरियस।
इस बीच हम उनसे कई बार देखने गए। ढेर बातें कहना चाहते थे। मगर आईसीयू में होने के कारण नर्स ने हमें ज्यादा बातें करने से भी मना किया। 
आखिरी बार जब हम उनसे मिले थे तो कहने लगे - डॉक्टर के कहे परहेज़ मान लिए होते तो ये दिन न देखना पड़ता। खुद पर तजुर्बा महंगा पड़ा। शायद यह हमारी आख़िरी भेंट है। 
हमने कहा - नहीं ऐसा नहीं हो सकता। आख़िरी शॉट हमारा होना है।

मगर ये हो न सका। दूसरे दिन दोपहर उनके न रहने के खबर मिली। एक और व्यक्तिगत नुक्सान। बंदा सिर्फ़ ६३ पर चला गया। कई बार हम सोचते हैं अगर सिन्हा जी होते तो फेस बुक पर एक अच्छे लोगों की मौजूदा फेहरिस्त में उनका नाम ज़रूर होता और उनकी सलाह से हम ज्यादा बेहतर लिख रहे होते। 
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