Saturday, April 22, 2017

चाची की बहु

- वीर विनोद छाबड़ा
ट्रेन छूट जाने के कारण हम अपने चाचा के बेटे राजीव की शादी में नहीं जा पाये थे।
अगली बार छह-सात महीने बाद दिल्ली जाना हुआ। पहुंचते ही चाची ने बतियाना शुरू कर दिया। घर-बाहर, अड़ोस-पड़ोस और अपने-पराये सब का हाल पूछ डाला। काफ़ी वक़्त गुज़र गया बतियाते। इस बीच एक लड़की आई। ठंडा ठंडा कूल कूल रूह-अफ़ज़ाह शरबत रखा। पांव छुए और चली गई। थोड़ा वक़्त और गुज़रा।
चाची ने पूछा - कैसी लगी हमारी बहु अल्का?
हमने कहा - अभी तक दर्शन ही नहीं हुए।
चाची ने थोड़े शिकायती लहज़े में कहा - वाह! क्यों मज़ाक करते हो? अभी आई तो थी। तुम्हारे पैर भी छुए थे उसने।
हमें हैरानी हुई - वो बहु थी? हमने तो ध्यान ही नहीं दिया। और आपने इंट्रोडक्शन भी नहीं कराया। हम तो सोच रहे थे कि बहु होगी, नई-नवेली सी दुल्हन की ड्रेस में, मेकअप की मोटी परत में और पायल बांधे, छम छम नचदी फिरां के मोड में।
दरअसल हम अपने यूपी वाली सोच के मोड में थे, जहां नव-ब्याहता साल-दो साल तक तो दुल्हन के मोड में रहती है। हमें तो ख्याल ही नहीं रहा कि हम दिल्ली में बैठे थे। वहां लड़कियां काम-काजी होती हैं। हाथ पे हाथ रखे नहीं बैठतीं।

बहरहाल, तब चाची ने बहु को आवाज़ दी। बहु आई। चाची ने विधिवत इंट्रोडक्शन कराया - तुम्हारे जेठ हैं, लखनऊ वाले।
बहु ने हमारे दुबारा पैर छुए। हम बहुत शर्मिंदा हुए कि हम अपनी बहु को नहीं पहचान सके। हमने उससे माफ़ी मांगी।
दरअसल, सारी गलती थी लखनउवा चश्मे की।

अब दिल्ली जब भी जाना होता है बहु के दर्शन ज़रूर होते हैं। वो खाना इतना अच्छा बनाती है कि एक ही दिन में हमारा दो किलो वज़न ज़रूर बढ़ जाता है। 
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