Thursday, June 15, 2017

न हिंदू, न मुसलमान, मिल बांट कर खाया

- वीर विनोद छाबड़ा
एक ज़ोरदार दारू पार्टी चल रही थी। इंजीनियर, बाबू, अकाउंटेंट, ठेकेदार आदि हर प्रोफेशन के लोग जमा थे। उनमें हिंदू भी थे और मुसलमान भी, सिख और ईसाई भी, यानि हर धर्म और जाति के लोग थे। दारू ने सारे भेद-भाव मिटा दिए।
पुरषोत्तम जी भरी महफ़िल में अपनी ईमानदारी के जोरदार किस्से बयान रहे थे। अच्छी-खासी चढ़ गयी थी। स्वयं को देशभक्त और बाकी धर्म वालों को भ्रष्ट भी बताते चल रहे थे।
एक बंदे से  बर्दाश्त नहीं हुआ। उसने उनको याद दिलाया - बरसों पहले मैं अपने एक दोस्त के साथ आया था। सारे कागज़ात पूरे थे, लेकिन बावजूद इसके आपने बिजली का कनेक्शन नहीं दिया। जब आपकी दराज़ में पांच सौ रूपए डाले, तो आपको सारे कागज़ात सही दिखने लगे थे और आपने फ़ौरन हस्ताक्षर कर दिए थे।
पुरषोत्तम जी ने सफ़ाई दी - अरे, हमारा उसूल है कि हम पैसा मांगते नहीं। जिसने ख़ुशी से दराज़ में डाल दिए, हमने मना नहीं किया और कभी गिने भी नहीं। अपना तो यही काम करने का तरीक़ा रहा। हराम के पैसे को कभी छुआ तक नहीं।
तभी पुरषोत्तम जी का मोबाईल बजा। उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें आयीं।

किसी ने पूछा - क्या हुआ पुत्तन भाई?
वो बोले - कुछ न पूछो। क़यामत आ गयी है। खां साहब के बेटे का फ़ोन है। बता रहा है कि अब्बू को दिल का दौरा पड़ा है। खां साहब मिलना चाहते हैं। कह रहे हैं कि चला-चली की बेला है। ऊपर जाने से पहले दीदार चाहते हैं।
एक ने पूछा - कौन खां साहब?

दूसरे ने कान में बताया - पुत्तन और खां बहुत गहरे दोस्त हैं। दोनों ने लंबे समय तक साथ-साथ एक ही डिवीज़न में नौकरी की। बहुत पटरी खाती थी। उस दौरान दोनों घूस पार्टनर थे। जो मिलता था बड़ी ईमानदारी से मिल-बांट कर खाते थे। हिंदू-मुसलमान नहीं होता था तब। अब दोनों ही रिटायर हैं, लेकिन दोस्ती क़ायम है। 
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15 June 2017
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