Wednesday, June 21, 2017

अपने लिए जिए, तो क्या जिए?

- वीर विनोद छाबड़ा 
कुछ महीने पहले की बात है। हमारे एक पुराने सहकर्मी दिवंगत हो गए। कारण अत्यधिक दारू से पूर्णतया ख़राब हो गया लीवर।
वो खुद तो चले गए लेकिन पीछे छोड़ गए कई यक्ष प्रश्न। उनमें प्रमुख था कि अनुकंपा के आधार पर नौकरी किसे दी जाये? दरअसल, उनकी दो पत्नियां थीं।
पहली पत्नी वैधानिक थी। परंतु उसके साथ वो रहते नहीं थे। वो गांव में रहती थी। उससे उनके तीन बच्चे भी थे।
बताते हैं कि दूसरी पत्नी से उन्होंने आर्य समाज मंदिर में शादी की थी। अंत तक उसी के साथ रहे भी। लेकिन समाज और कानून की मोहर नहीं लगी। किसी ने अटेंड नहीं की। उससे भी उनके दो बच्चे भी हुए। अब इन बच्चों की क्या गलती?
पहली पत्नी ने उनकी इस तथाकथित शादी के विरुद्ध मुकद्दमा भी चल रहा है।
क्लेम किसे दिए जायें? दावा दोनों और से पेश किया गया है।
कुछ का कथन है कि दूसरा विवाह उन्होंने पहली पत्नी की लिखित सहमति के आधार पर किया था। ऐसा डॉक्यूमेंट भी मौजूद है। परंतु पहली पत्नी का कथन है कि यह सहमति फर्जी है। धोखे से हस्ताक्षर कराये गए थे। 
फैसला किसके पक्ष में जाएगा, पता नहीं।
लेकिन विचारणीय बिंदु यह है कि दिवंगत सहकर्मी की बुराई न की जाए। जब व्यक्ति मरता है तो उसकी आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाती है। उसकी अच्छाईयों को याद करना चाहिए।
इसी पर एक साहब ने टिप्पणी कर दी - कोई अच्छा काम किया हो तो उसे याद भी करें।
कुछ लोग होते हैं जो जाते-जाते इतने सारे सवाल खड़े कर जाते हैं कि उनके बच्चे उसी में उलझ कर रह जाते हैं।
अब ऐसे लोगों को तो ग़लत कारणों से ही तो याद किया जायेगा।

बड़े-बुज़ुर्गों का कहा याद आता है - अपने लिए जिए, तो क्या जिए? इंसान को हर समय खुद को टटोलते रहना चाहिए। सतकर्म करो और किसी की बद्दुआ लेकर न जाओ। ज़माना आपको नेकी के लिए याद रखे। 
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22 June 2017
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