Wednesday, June 7, 2017

मिक्सी जूसर से जूस!

-वीर विनोद छाबड़ा 
आजकल मार्केटिंग का ज़माना है। बढ़िया पैकिंग। किसी विदेशी कंपनी की मुहर। आर्डर दें या न दें, आपके द्वारे पर आ जायेंगे। ये मेक इन जापान और ये जर्मनी। बाज़ार में किसी बड़े शो रूम से खरींदेंगे तो दस हज़ार में मिलेगा। लेकिन हम तीन हज़ार में ही दे देंगे। ज़बरदस्त क्रेज़ है विदेशी आइटम के लिए।
हमें एक बरसों पुराना वाकया याद आया है।
मिक्सी बड़े घरों की शोभा थी। विदेशी आइटम था। बड़ी उपयोगी वस्तु थी। कुछ देशी कंपनियों ने इसे घर-घर पहुंचाने की ठानी। उषा कंपनी भी उनमें एक थी। उनके कुछ नुमाइंदे हमारे  ऑफिस में इसे प्रमोट करने और बेचने आये। महिला कर्मियों ने इसमें विशेष दिलचस्पी दिखायी।
हमारे ऑफिस में ठुल्ले यानी निठल्ले किस्म के पुरुष और महिला कर्मचारी समान अनुपात में बड़ी मात्र में उपलब्ध थे और आज भी हैं।
इन्हीं में से एक मोहतरमा ने मिक्सी जूसर-ग्राइंडर खरीदा। वो गर्व से फूली न समा रही थी।
हमने ऐसे ही पूछा - ठीक से सीख लिया है न ऑपरेट करना?
उन्होंने हमारे प्रश्न को अपनी संपूर्ण लियाक़त पर ही प्रश्नचिह्न समझ लिया - हां हां। बिलकुल। आप तो हमें निरा बुद्धू समझते हैं। ईश्वर ने सारी बुद्धि आपमें ही ठूंस दी है। 
उन्हें हम पर इतना गुस्सा आया कि चेहरा लाल कर लिया। आंखों से मोटे-मोटे आंसू टपकने लगे। इच्छा हुई कि वेस्ट पेपर बास्केट नीचे रख दें ताकि कीचड़ न होने पाए।
हमने एक बार नहीं बल्कि तीन बार सॉरी बोल कर बात ख़त्म कर दी। लेकिन इसके बावजूद हम बहुत देर तक उनकी बड़-बड़ सुनता रहा - खुद तो खरीदी नहीं। दूसरों से जल रहे हैं।
ये सुन-सुन कर बाकी लोगों को खूब मस्ती आ रही थी - आज फंसे हो, छाबड़ा जी। बहुत चुटकी लिया करते हो न। 
यार कहां बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया। खुद से ये कहते हुए हम बाहर निकल लिए।
मोहतरमा ने रोज़ की तरह उस दिन भी चार बजे प्लास्टिक की डिबिया वाला टिफ़िन और तमाम दूसरा सामान झोले में डाला। चपरासी से मिक्सी का पैकेट उठवाया और घर के लिए निकल लीं - चलें। पांच बजे टेम्पो नहीं मिलता। फिर मुन्नू के पापा भी तो दफ़्तर से जल्दी घर आते हैं। 
मोहतरमा दूसरे दिन ऑफिस आयीं। लेकिन कुछ उदास-उदास सी।
पंगा लेने की आदत से हम भी मजबूर थे। उस दिन तो लाख़ रोकने की कोशिश की, लेकिन रुक न सके। पूछ ही बैठे - क्या हुआ?
वो हाथ नचाते हुए बोली - होना क्या था? उषा कंपनी वाले बेवकूफ बना गए।
हम हैरान हुए - वो कैसे?

वो गुस्से में बोलीं - बार-बार बटन प्रेस किया। मगर उसमें से जूस तो निकला ही नहीं।
उन्हें लगा कि हम कोई हल बताएंगे। लेकिन हमने हाथ खड़े कर दिए - भई हम तो ठहरे ग़रीब आदमी। मेहनत मशक्क़त में यकीन रखते हैं। इसीलिए हमने मिक्सी खरीदी नहीं। और न ही कोई जानकारी नहीं है। किसी और से पूछ लीजिये।
उन मोहतरमा ने बहुतों से अपनी प्रॉब्लम डिस्कस की। सबने लगभग यही सलाह दी - कंपनी जाइए या जो सेल्समेन कल मिक्सी आपको बेच गया उसको फ़ोन करके बुलाइये यहां।
चुटकी लेने की फितरत से हम फिर बाज़ नहीं आये। पूछ ही बैठे - उसमें फल तो डाले थे न?
ये सुनते ही उन मोहतरमा का मुंह हैरानी से खुला का खुला ही रह गया - उई मां! उसमें फल भी डालने थे क्या? कल सेल्समैन ने ये तो बताया नहीं था।
इससे पहले जोर से हंस कर हम उनकी झेंप और गुस्से का निशाना बनते, हम बाहर निकल गए।

वो मोस्ट इंटेलीजेंट महिला रिटायर होने के बाद भी एक आला अधिकारी की सलाहकार के रूप में ठेके पर चार साल काम करती रही। नई सरकार न आती तो वो बनीं रहतीं। 
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