Saturday, August 13, 2016

गीत के चलते जारी हुआ था वारंट

- वीर विनोद छाबडा
दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल...आओ बच्चों तुम्हें दिखायें झांकी हिंदुस्तान की...हम लाये हैं तूफानों से कश्ती निकाल के...बिगुल बज रहा आज़ादी का गगन गूंजता नारों...देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान...दे दी हमें आज़ादी बिन खड्ग बिना ढाल...इन पंक्तियों के रचियता कवि प्रदीप हैं। १५ अगस्त १९४७ के बाद पैदा हुई पीढ़ी ने जब होश संभाला तो उसने इन्हीं गानों के माध्यम से अपने मुल्क के बारे में जाना। जाना कि हम कभी गुलाम थे। तन पर एक लंगोटी बांधे एक गांधी बाबा आया। उसके हाथ में थी एक सोटी। उसने समंदर की लहरों पर राज करने वाली अंग्रेज़ी हुकूमत की गुलामी से हमें आज़ादी दिलायी। इन कवि प्रदीप है जो उक्त गीतों का रचियता है।
उज्जैन के एक कस्बे में जन्मे रामचंद्र नारायणजी द्विवेदी कवि सम्मेलनों में खूब अच्छा गाते थे। अच्छी लोकप्रियता मिली। उनका नाम बहुत लंबा था। शुभचिंतकों के कहने पर उन्होंने अपना उपनाम रखा प्रदीप। इस नाम से वो इतना विख्यात हुए कि मूल नाम कहीं गुम हो गया। लखनऊ विश्वविद्यालय में शिक्षा के दौरान उन्हें बांबे टाकीज़ के हिमांशु राय ने 'कंगन' फिल्म के गाने लिखने का अवसर दिया। उन्होंने लिखा - फिर सूनी पड़ी है सितार मीरा के जीवन की...इसे लीला चिटणीस ने गाया तो धूम मच गयी। न जाने आज किधर मेरी नाव चली रे...इसे अशोक कुमार ने गाया तो प्रदीपजी की फिल्मों में मांग बढ़ गयी। 

लेकिन प्रदीपजी को असली पहचान मिली १९४३ में रिलीज़ हुई किस्मतके इस गाने से - दूर हटो ए दुनियावालों हिंदुस्तान हमारा है...अमीरबाई कर्नाटकी और खान मस्ताना द्वारा गाया देशभक्ति से ओतप्रोत यह गाना कश्मीर से कन्याकुमारी तक गूंजने लगा। शुरू में अंग्रेजी हुकुमत इस गाने को दूसरे विश्व युद्ध के संदर्भ में अपने लिए समझती रही। लेकिन जब उन्हें असली अर्थ समझ में आया तो इस पर पाबंदी लगा दी। प्रदीपजी के नाम वारंट कट गया। वो कई महीने भूमिगत रहे।
आज़ादी के बाद 'जागृति' और फिर 'नास्तिक' में उन्होंने राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत जज्बाती गीत लिखे। लेकिन वो एक विधा में बंध कर रहने वाले नहीं थे। चलो चले मां सपनों के गांव में कांटों से दूर कहीं फूलों की छांव में...'जागृति' की इस कर्णप्रिय इस लोरी ने बच्चों के साथ साथ बड़ों को भी मीठी नींद सुलाया। भाई-चारा बढ़ाने 'पैगाम' का यह गाना आज भी प्रभावी है - इंसान का इंसान से हो भाई-चारा, यही पैगाम हमारा....
१९६२ में चीन ने पीठ में छुरा घोंपा। मुल्क घायल हुआ। बहुत तबाही हुई। सैनिकों और आमजन का मनोबल टूटा। तब प्रदीपजी ने जोश भरने के लिये लिखा ऐ मेरे वतन के लोगों...इसे लता जी ने जोश भरने के लिये जब एक समारोह में गाया तो पूरा मुल्क एकबद्ध हो गया। प्रधानमंत्री नेहरू की आंखें नाम हो आयीं। उन्होंने पूछा कौन है इसका रचियता। पता चला कि प्रदीपजी को आयोजक न्यौता देना ही भूल गये हैं। बाद में नेहरूजी ने उन्हें विशेष रूप से मिलने बुलाया और राष्ट्रीय कवि घोषित किया। प्रदीपजी इस गीत को लिखने की प्रेरणा चीन के विरूद्ध युद्ध में शहीद परमवीर चक्र विजेता मेजर शैतान सिंह भट्टी के बलिदान से प्राप्त हुई।

प्रदीपजी के गीतों के भीतर भी बहुत दर्द है। देश तोड़ने और भेदभाव फैलाने वालों के विरुद्ध उनके गीतों की इन पंक्तियों पर गौर करें...ऐ भारतमाता के बेटों, सुनो समय की बोली को, फैलाती है फूट यहां पर दूर करो उस टोली को...आती है आवाज़ यही, मंदिर-मस्जिद-गुरूद्वारों से, संभल कर रहना अपने घर में छुपे हुए गद्दारों से... रोती सलमा, रोती है सीता, आज हिमालय चिल्लाता है कहां पुराना वो नाता है...आज हर आंचल को है खतरा, आज हर घूंघट को है खतरा, खतरे में लाज बहन की....राम के भक्त, रहीम के बंदे, रचते आज फरेब के फंदे...
आज के परिप्रेक्ष्य में देखिये तो हम पाते हैं कि प्रदीपजी तब बेमिसाल थे और आज भी प्रासांगिक हैं। वो समय से आगे चले थे। 

प्रदीपजी भक्ति गानों में भी नंबर एक थे - यहां वहां, जहां तहां मत पूछो कहां कहां है संतोषी मां...मैं तो आरती उतारूं रे...धनोपार्जन के मामले में 'शोले' को टक्कर देने वाली अल्प बजट में बनी जय संतोषी माताकी सफलता के पीछे प्रदीपजी के गीतों का भी बहुत बड़ा योगदान था। इसके अलावा प्रदीपजी का यह गीत भी बड़ा मशहूर हुआ था - चल अकेला चल अकेला, तेरा मेला पीछे छूटा तू चल अकेला...जो दिया था तुमने एक दिन मुझे वही प्यार दे दो, एक कर्ज़ मांगता हूं, बचपन उधार दे दो...
प्रदीपजी ने लगभग १७०० गीत लिखे। इसमें ७२ फिल्मों में लिखे गीत भी शामिल हैं। स्वंय भी अनेक गीत गाये। सर्वाधिक लोकप्रिय थे - देख तेरे संसार की हालात क्या हो गयी भगवान...कैसी यह मनहूस घड़ी है, भाईयों में जंग छिड़ी है...।

आज के मौहाल में प्रदीपजी को याद करना बहुत जरूरी है। यदि प्रदीपजी न होते तो इतिहास ने बहुत कुछ खोया होता। ०६ फरवरी १९१५ को जन्मे प्रदीपजी का देहांत ११ दिसंबर १९९८ को हुआ था। भारत सरकार ने उनकी याद में एक विशेष डाक टिकट जारी करने के साथ-साथ १९९७ में दादा साहब फाल्के पुरुस्कार से नवाज़ा है। लेकिन यह बहुत कम हैं। राष्ट्र प्रेम से ओत-प्रोत गीतों को अगर देशभक्ति का पैमाना माना जाए तो नंबर एक पर प्रदीपजी ही हैं और वस्तुतः वो भारत रत्न के सही हक़दार भी हैं। 
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Published in Navodaya Times dated 13 Aug 2016
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