Saturday, August 27, 2016

डरपोक!

- वीर विनोद छाबड़ा
वो हमारे पडोसी और अच्छे मित्र हैं। मुलाक़ात अक्सर होती है उनसे। पहले तो बहुत ठीक थे। प्रगतिशील विचारों वाले। स्त्री सशक्तिकरण के धुरंधर समर्थक। कुप्रथाओं के घनघोर विरोधी।

परंतु इधर कुछ दिनों से हम उनमें बदलाव देख रहे हैं। कुछ कुंठित से हैं और विचारों में दकियानूसीपन भी झलकता है। धार्मिक समारोहों में जाने की निरंतरता और उत्कंठा बढ़ रही है। पहनावे में भी एक धर्म विशेष के अनुयायी दिखने लगे हैं।
उनके गले में तावीज़ मैं मुद्दत से देख रहा हूं। लेकिन कुछ दिनों से कलाई और बाहों में भी तावीज़ बंधी दिखती है। और तो और दोनों पैरों में भी। कहते हैं क़ि तावीज़ हमारी पारिवारिक परंपरा है।
लेकिन अंदर की खबर रखने वाले ने बताया कि हुज़ूर कमर में भी दो अदद बांधे हैं। जिस पलंग पर सोते हैं उसके चारों पायों में भी कुछ बंधा है। स्कूटर और कार भी अछूते नहीं हैं। गेट पर भी कुछ लटका है। ड्राइंग रूम में टंगी बंदूक के साथ अब क़मर में भी अस्सी हज़ार की पिस्तौल बंधी है।
कल शाम हमें गली के मोड़ पर मिल गए। हमसे रहा नहीं गया। पूछ ही लिया - आपको किससे डर है? यहां सड़क इंसान के अलावा छुट्टा कुत्ते और गौ-माता बेशुमार हैं। किसी-किसी चौराहे पर सांड भी विचरते हैं। बंदरों का उत्पात भी जग ज़ाहिर है। बेतरतीब दौड़ते दो पहिया और चार पहिया वाहन भी बहुत हैं। इनमें सबसे ज्यादा शैतान कौन है? मृत्य से डरते हो? अरे वो तो निश्चित है। कोई दावा नहीं कर सकता कि कब शरीर काम करना बंद कर दे। नियति में लिखा कोई नहीं पढ़ पाया।
बड़ी शांति से वो दस मिनट तक का हमारा धाराप्रवाह ओजस्वी प्रवचन सुनते रहे। हमने प्रभु की लीला को भी धन्यवाद दिया कि किसी ने हमें निरंतर इत्ती देर तक सुना।
फिर वो ठिठक गए। और हम भी। हमारी ओर मुख़ातिब हुए। हमें घूरा। दोनों कंधे उचकाये। सर हिलाया। फिर सर को थोड़ा हमारे करीब लाये। हमारे दोनों कंधे मज़बूती से पकड़े। हमारी आंखों में झांका। और धीरे से बोले - आपको किस बात की फ़िक्र? मकान भी मिल जाये और दुकान भी। और नौकरी भी। सरकारी और ग़ैर-सरकारी दोनों। हमारे लिए तो अब कुछ भी नहीं बचा।

इससे पहले कि हम कुछ कहते, अहसास हुआ कि हम दोनों सलीम साहब की छोटी सी परचून की दूकान के सामने खड़े हैं। वो दूध-ब्रेड और मक्खन भी रखते हैं।  हमने दूध की दो थैलियां ली और साथ में ब्रेड और दो पैकेट पार्लेजी भी। पूरी कॉलोनी छोटा-मोटा समान सलीम साहब से ही लेती है। दुकान के पीछे उनका घर भी है। कुछ आदतन लेट-लतीफ़ वाले रात-बे-रात बिना झिझक किवाड़ खटखटा कर समान लेते हैं। उम्र दराज़ सलीम साहब के चेहरे पर लकीरें तो बहुत हैं, मगर चिंता और असुरक्षा की एक भी नहीं। हमेशा मुस्कुराते हुए देखा है हमने उनको। हमने एक नज़र सलीम साहब पर डाली और फिर मित्र पर।

मेरे मुंह से बेसाख्ता निकला - डरपोक कहीं के!
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