Thursday, August 25, 2016

अक़्ल बड़ी या भैंस से बंदूक बड़ी या कलम तक!

- वीर विनोद छाबड़ा
अक़्ल बड़ी या भैंस? बचपन से सुनते आये हैं। सबको मालूम है कि अक़्ल ही बड़ी है। फिर भी बहस जारी है। अच्छी तरह ये ये मालूम होते हुए भी कि अंततः अकल ही जीतेगी। लेकिन उल्टी गंगा बहाने में माहिर आशावादी कवायद में लगे है। वो सुबह कभी तो आयेगी जब भैंस अक़्ल से बड़ी कहलायेगी। ये बात तब पुख्ता हुई जब एक मंत्री जी की भैंसे चोरी हो गयी और सारा महकमा लाखों रुपये की अक़्ल खर्च कर भैंसे ढूंढ़ लाया। अरे जितने रुपये भैंस ढूंढ़ने में अक़्ल पर खर्च कर दिये इतने में खोयी भैंसों से ज्यादा भैंसे जातीं। बहरहाल, सत्य की जीत हुई।
अब वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य देखिये। चैनल पर खबर ठीक से सुनी, देखी और लाईनों के भीतर देखने की कोशिश की। सिर्फ फोटो बाईट देखा और उत्तेजित हो गये। चल पड़े लाठी-डंडा उठा कर मैदान में दो-दो हाथ करने। जैसे दिखाने-सुनाने वाले वैसे ही देखने-सुनने वाली पब्लिक पैदा हो गयी है। कोई दहाड़-दहाड़ कर खुद को सुनामी बता रहा है तो कोई राबिनहुड की तरह भष्टाचार और अपराध को झाड़ू से बुहारने का बात कर रहा है। ये देख-सुन कर बंदे का दिल वेदना से बहुत भीतर तक कराह उठता है। वो ज़माना देखा है उसने जब कहा जाता था कि झूठ बोलना पाप है। इस सामाजिक मूल्य पर प्रहार करने वाले को निरा मर्ख माना जाता था, हिकारत का पात्र घोषित कर दिया जाता था। ऐसे ही  चोरी अपराध है। अब देखिये कैसी उलटी गंगा बह चली है। मूल्य पलटे जा रहे है। कोई वेल्यू ही नहीं रही। लड़का ऊपर से कितना कमा रहा है? खुले आम पूछा जा रहा है। पहले इस ऊपरली कमाई पहले बड़े डर डर कर टेबुल के नीचे से ली जाती थी। अंडरहैंड डील।

ज्ञान चक्षु खोलने के लिये बड़े बड़े संत महात्मा पैदा हो रहे है। अरे बाबा रे, ज्ञान का विपुल भंडार हर व्यक्ति के भीतर पहले से मौजूद है, बस तनिक झांक कर देखिये तो। कोई चैलेंज करने की गुस्ताखी नहीं कर सकता था। मगर ये भी अब बिकाऊ हो गया। बेचने वालों की एक छोटी सी ज़मात फिलहाल जेल में चक्की पीस रही है। मगर पब्लिक है कि मानती नहीं। उन्हें यकीन है कि भगवान सलाखों के पीछे ज्यादा दिन नहीं रह सकते। कृष्ण जी भी बाहर आये थे, कितना आंधी-तूफान था। जमुना जी पूरे ऊफान पर थीं। कलयुग जायेगा। देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान कि कितना बदल गया इंसान। भगवान को सलाखों के पीछे डाल दिया है।

पहले बड़े-बुजुर्ग तमाम छोटे-बड़े घरेलू और गली-मोहल्ला स्तर के झगड़े चुटकी बजाते हल कर दिया करते थे। अब मोटी फीस लेने वाले कौंसिलरों को रेफर किये जाते हैं जो इन्हें कचेहरी-थाना में डलवा देते हैं। बंदा भरे दिल से याद करता है कि उस ज़माने को जब सबसे बड़ी ताकत क़लम की होती थी। एक फिल्म थी, पचास के दशक के आखिर की- मास्टरजी।  दिक्कत में फंसे बुजुर्ग को कलेक्टर साहेब षणयंत्रकारियों के चुगल से छुड़ाते है। हैरान-परेशां बुज़ुर्ग उसे शुक्रिया कहते हैं तो कलेक्टर उल्टे उनके पांव गिर पड़ता है और बताता है कि वो वही छोटा सा नटखट नंदू है जिसे आपने क़लम ईनाम में दी थी। उसी कलम की बदौलत वो कलेक्टर बना है। वो कलम आज भी बतौर अमानत महफूज़ है।

मगर बंदे को खुशी है देखे गये सीन पर बात ज्यादा देर टिकती नहीं। रात गयी, बात गयी। पर लिखी बात पर दूर तक बात होती है। देश विदेश दूर दूर से विद्वान आकर माथा-पच्ची करते हैं। कलम के बूते कालजयी हुये गोस्वामी तुलसीदास और प्रेमचंद आज भी प्रासांगिक हैं, उनके लिखे पर आज भी अक्सर बातें होती हैं। रिसर्च चला करती है। तोपें-एटमबम जिस समस्या का हल नहीं निकाल सकते उसेढाई आखर प्रेमचुटकियों में हल कर सकता है। दुनिया का आज भी सबसे खूबसूरत लिखित शब्द है, जिस पर अनेक महान गाथायें लिखी जा चुकी है। ये सिलसिला रुकेगा नहीं, अनंत तक।
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