Friday, July 21, 2017

आनंद रोमानी - सड़क पर वापसी

-वीर विनोद छाबड़ा
तकरीबन 20 साल पहले मैंने अपने मरहूम पिता जी- राम लाल, उर्दू के मशहूर अफ़सानानिगार- की पहली बरसी पर एक लंबा-चौड़ा लेख लिखा -अब यहां कोई नहीं आता।
मेरे दोस्त आनंद रोमानी ने इस पर एक ख़त लिखा। इसे हर्फ़-ब-हर्फ़ मैं पेश कर रहा हूं -

हैलो, विनोद!
इसमत ने अपने भाई अज़ीम बेग चुग़ताई की वफ़ात के बाद उन पर एक लेख प्रकाशित कराया था, जिसका शीर्षक उन्होंने रखा था - दोज़ख़ी। अज़ीम बेग अपने आख़िरी दिनों में एक लंबी मुद्दत तक चलने फिरने से लाचार रहे थे। वह बिस्तर पर ही पड़े रहते थे। और वहीं लटे लेटे ही उन्हों ने वह कहानियाँ लिखीं थीं, जिन्हें उस दौर की सबसे अच्छी हँसाने वाली कहानियाँ तसलीम किया गया था।
घरवाले उनकी दिन रात की निरंतर तीमारदारी करने से उनकी तरफ़ से बेज़ार न हो जाएं, इसका भी उन्हों ने एक उपाय ढूँढ लिया था। वह घरभर के सभी सदस्यों को एक दूसरे के ख़िलाफ़ मनघड़ंत बातें बता कर उन्हें आपस में लड़ाते रहते थे, और स्वयं हरदिल अज़ीज़ बने हुए थे। इसमत ने जहाँ उस लेख में अपने भाई की अनेक अच्छाइयाँ गिनवाई थीं, वहीं उनको घर में फूट डलवाने का दोषी भी ठहराया था।
वह लेख पढ़ कर मंटो की बीवी सफ़िया ने इसमत की अपने पति के आगे बहुत शिकायत की थी, और इसमत को ख़ूब बुरा भला कहा था, कि कहीं मरे हुए पर भी कोई यूँ कीचड़ उछालता है? और वह भी अपने मरहूम सगे भाई पर! लेकिन, विनोद, जानते हो मंटो का इस पर क्या reaction था? मंटो ने कहा, "सफ़िया, अगर मुझसे वादा करो कि इतनी ही ईमानदारी से तुम मेरे ऊपर एक आरटिकल लिख कर छपवा दोगी, तो क़सम ख़ुदा की मैं इसी वक़्त ख़ुदकुशी करके मरने को तैयार हूँ!"
राम लाल जी पर तुम्हारा भेजा लेख पढ़ कर मेरे दिल में हुक उठी थी कि काश मेरे मरने के बाद ऐसा ही एक लेख तुम मेरे ऊपर भी लिख डालो!
रोमानी

रोमानी साहब ने परमात्मा, ख़लीफ़ा, जवां मोहब्बत, प्रीतम, सुहाना सफ़र, प्यार ही प्यार, ब्रह्मचारी, अर्चना आदि दर्जन भर फिल्मों के संवाद लिखे थे। ये सत्तर के दौर की बड़ी फ़िल्में थीं, और कामयाब भी। उनका दावा था कि 'तुम हसीं मैं जवां' में उनके संवादों ने ही धर्मेन्द्र को कॉमेडी सिखाई। 
कई बार लखनऊ आये। उनसे ढेर फ़िल्मी किस्से-कहानियां सुनीं। उनका राइज़ और फॉल का फ़साना जाना। उन्हें अकड़ और खुद्दारी ले डूबी। सड़क पर वापसी हो गयी। ठनठन गोपाल। घोस्ट राईटिंग करके रोटी-रोज़ी का जुगाड़ किया करते। दो बार हार्ट अटैक हुआ। सरकारी अस्पताल में पड़े रहे।
मेरा कोई दोस्त बंबई जाता होता तो मैं उससे कहता - रोमानी साहब से मिल लेना। दोस्त लौट कर आते तो मेरे लिए ढेर पुराने अख़बारों की कटिंग और बदबू मारते पुराने रिसालों का पैकेट ले आते। रोमानी साहब ने तोहफ़ा भेजा है।
मेरी उनसे बराबर खतो-किताबत होती रहती। १९९८ के बाद उनके ख़त आने बंद हो गये। तमाम ख़त लिखे। कई बार फ़ोन किया। मगर कोई जवाब नहीं।
सात-आठ साल गुज़र गए। बंबई जाते एक दोस्त से कहा रोमानी साहब की ख़ैरियत ले आना। लौट कर उसने बताया कि उन्हें गुज़रे तो सालों हो गए। दिल्ली गए थे। वहीं हार्ट फेल हो गया। दिल को धक्का लगा। उन्होंने वादा किया था - लखनऊ आऊंगा और अपनी आत्मकथा सुनाऊंगा, जिसे लिखोगे तुम।
बिना वादा पूरा किये चले दिये। न अख़बार में कोई ख़बर और न उनके बेटे -बेटियों ने सूचना दी। बड़ी तक़लीफ़ हुई।
रोमानी के लिखे तमाम खतों को दीमक चाट गयी। इत्तिफ़ाक़ से यही एक ख़त कहीं अलग रखे होने की वज़ह से बच गया। 
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21 July 2017
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