Saturday, July 8, 2017

कभी हम भी थे छोटे-मोटे जुआड़ी

-वीर विनोद छाबड़ा
एक ज़माना था जब हम भी तीन-पत्ती खेल के छोटे-मोटे शौक़ीन हुआ करते थे। दिवाली के आस-पास इधर से उधर बौराया करते थे। कभी कभी बिना दीवाली भी दौरा पड़ जाता था खासतौर पर जब हम दोस्तों में किसी की पत्नी मायके गयी होती थी। लेकिन हमारे दायरे और चाल की रेंज लिमिटेड होती थी। साथी खिलाडी हमारे बारे में कहते थे - यार, पक्का सॉलिड स्टेट है तू।
कुछ मित्र हमें बहुत झटियल, डरपोक और कंजूस किस्म का जुआरी भी मानते थे। हमें हराने में उनको विशेष ख़ुशी नहीं होती थी। जुआड़ी हमेशा बड़े या टक्कर वाले से हारना या जीतना पसंद करता है।
बड़ी चाल जब हम चलते थे तो साथी समझ जाते थे कि कोई बड़ा 'सिलसिला' (रन) विद कलर फंसा है। बाकी खिलाड़ी सर्रेंडर कर जाते। लिहाज़ा हम जीत कर भी भारी रकम नहीं उठा पाये कभी।  
आमतौर पर महफ़िल जमती थी हमारे पिछवाड़े रहने वाले प्यारे दोस्त कमल त्रिवेदी के घर पर। हम उन्हें प्यार से पंडित जी कहा करते थे। बड़े गजब के आदमी थे वो भी। 
बैठे-बैठे कब दिन ढला और रात हुई और फिर सवेरा, पता ही नहीं चलता था।
बेचारी पंडताईन बिना चूं-चपड़ किये खाने-पीने के इंतज़ाम में लगी रहती थीं।
इधर हम सब खिलाडी दोस्तों की घरवालियां बेफ़िक्र रहतीं थी। वो समझ जाती थीं कि पीछे कमल के घर बैठें हैं। पेट-पूजा हो ही रही होगी। कमलनी खाना-पीना अच्छा बनाती है और बड़ी बात ये कि खिलाती भी ख़ुशी-ख़ुशी से है।
हार-जीत तो लगी ही रहती थी। मगर अफ़सोस नहीं होता था। अपनों के बीच में अपनों से ही तो हारे हैं।
एक सिफत ये भी थी कि ठन-ठन गोपाल होने के बावजूद कोई खाली जेब घर नहीं जाता था। जीते हुए दोस्त हारे हुए की जेब में कुछ न कुछ डाल दिया करता थे - खाली जेब घर नहीं जाया करते। 
मगर एक दिन ग्रहण लग गया। पंडितजी को ज़बरदस्त पक्षाघात हो गया। हम सब भी सहम गए। पंडित जी २१ साल तक आधे जिस्म से बड़ी मुस्तैदी से दूसरी चालें चलते रहे। कहीं न कहीं आरटीआई लगाते रहे।
हां, तीन पत्ती बंद हो गया। हर साल दीवाली आती। पंडितजी के साथ बैठ कर चाय-पकौड़ी उड़ाते और बीते जुआड़ी दिनों की याद करते थे। मज़ाक-मज़ाक में कहा कहते थे - यार, ऊपर जाकर खेलेंगे।
लेकिन अब वो सिलसिला भी खत्म हो गया है। पंडित जी को गुज़रे चार साल हो गए हैं।

मगर उनके दरवाजे पर जाए बिना मन मानता नहीं है। पिछली दीवाली पर गए थे और उससे पहले वाली पर भी। चाय पी थी और पंडित जी के साथ गुज़ारे दिनों की याद ताज़ा करी थी। लेकिन इस बार ऐसा नहीं होगा। पंडितजी की पंडताईए तो कहीं बाहर तीर्थ करने गयीं हैं।
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Dated 08 July 2017 
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