-वीर विनोद छाबड़ा
सुबह-सुबह का वक़्त।
एक बंदा घर से बाहर धकेला गया। वो नाना प्रकार की व्याधियों से पीड़ित है। बकौल चिकित्सक
बेहतर सेहत के लिए टहलना बेहद ज़रूरी है। उसने पलट कर देखा। दरवाज़ा बंद हो चुका था।
मजबूरन उसने खुद को खींचा और चल पड़ा टहलने। आंखें अभी तक बंद-बंद सी हैं। कदम लड़खड़ा
रहे हैं। घनघोर पैसेंजर ट्रेन माफ़िक ढकेलता हुआ मंथर गति से वो खुद को सरकाता है।
बंदा उन मार्निंग वाकरों
में से है जिनके मन और बुद्धि जुदा-जुदा हैं। मन सुस्ती की दुनिया का बेताज बादशाह।
नींद दुनिया का सबसे हसीन तोहफ़ा है। मन जिस्म को पल भर में स्विट्ज़रलैंड की हसीन वादियों
से सैर करा वापस ले आता है। मन चंगा है तो कठौती में गंगा। लेकिन स्वास्थ्य की पहरेदार
बुद्धि तीन-चार किलोमीटर रोज़ टहलना मांगती है।
मन और बुद्धि के बीच
भीषण द्वंद है। बीच में जिस्म बेवज़ह पिसता है।
आधा घंटा गुज़र चुका
है। बंदा अब तक चैतन्य हो चुका है। उसे अपने जैसे अनेक बेमन टहलूए दिखने लगे हैं। कुछ
बदबूदार नालों पर बनी टूटी-फूटी पुलिया पर बैठे झपकिया रहे हैं। कुछ को कुत्ते खींच-खींच
कर टहला रहे है। उन्हें बिस्तर से उठा कर भी कुत्ते लाये हैं।
बगीचा आ गया। बंदा
प्रवेश करता है। यहां नाना प्रकार के समूह हैं। कई लोग विभिन्न मुद्राओं वाले योगा
में लीन हैं। बीच-बीच में कनखियों से साथी महिलाओं को तकते भी हैं। कुछ चालाक ध्यान
लगाने के बहाने नींद मारते दिखते हैं। सबका एक ही ध्येय है, मन काबू में करना।
लेकिन मन रे, तू काहे न धीर धरे?
वहां वरिष्ठजन का भी
एक समूह विराजमान है, ज़िंदादिल और बिंदास। ये तो बस पौ फटी नहीं कि पार्क में आ पसरे।
इन्हें टहलते और योगा-व्यायाम करते कभी नहीं देखा गया। ये डेढ़-दो घंटा दिल खोल कर हंसी-ठट्ठा
करते हैं। बंदा इन्हीं का सदस्य है।
आज यहां जश्न का माहौल
है। अमेरिका से सत्या जी लौटे हैं, पूरे छह महीने बाद। बेटे के परिवार की सेवा
करने गए थे। तीन महीने बाद फिर जाएंगे। तब तक बहु के माता-पिता लौट चुके होंगे। तभी
किसी ने कई दिन से गायब मदन जी का ज़िक्र छेड़ दिया। उनकी ड्यूटी इन दिनों कुत्ता टहलाने
पर है।
फिर शुरू होता है चुटकुलों
का दौर। एक-दूसरे की जम कर खिंचाई और मज़ाक उड़ाने की प्रतियोगिता चलती है। दिल खोल बिंदास
हंसना-हंसाना। ज़बरदस्ती हंसने से भी कोई चंगा हुआ भला?अविश्वसनीय किस्से
सुनने-सुनाने और कुतर्क का सेशन भी है। मन के मालिक हैं ये। उनकी सेहत इसी से ठीक रहती
है।
इस बीच परेशान बुद्धि
के पास जड़ हो जाना ही विकल्प है।
सूरज चढ़ते ही वरिष्ठजन
का ये समूह लौटता है। ज़िंदगी, कैसी है पहेली, हाय रे.…
तभी एक चुस्त-दुरुस्त
व पसीने से तर-बतर महिला उन्हें तूफानी स्पीड से ओवरटेक करती है।
वे एक-दूसरे को देख
मुस्कुराते हैं। अंचंभित नहीं होते। सर्वविदित है कि टहल कर लौट रही महिला का फोकस
ये है कि शीघ्रातिशीघ्र घर पहुंचे। निठल्ले पति और आलसी बच्चों को जबरन उठाकर चाय पिलाये।
बच्चों को स्कूल भेजे। खाना बनाए और फिर घर पति के हवाले कर खुद आफिस जा सके।
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प्रभात ख़बर में प्रकाशित।
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16.11.2015 mob.7505663626
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