Friday, November 20, 2015

बचा ली एक पुरानी निशानी।

- वीर विनोद छाबड़ा
पुरानी निशानियां एक-एक करके ख़त्म हो रहीं हैं।
पिता जी नहीं रहे और फिर कुछ साल बाद माता जी। लेकिन उनकी निशानियां रहीं। उन्हीं को देख-देख कर हम उन्हें याद करते रहे। हम बड़े फ़ख़्र से बताया करते थे कि ये पलंग १९५६ का है और यह दूसरा वाला १९५९ का।

और ये श्रंगार मेज़ है, प्योर शीशम। बिग साईज़। आठ दराज़ें हैं। अंग्रेज़ों के ज़माने का बना है। कोई नवाब साहब इंग्लैंड जाने से पहले पिताजी को कोई गिफ़्ट कर थे। खड़े होकर मेकअप करिये। चाहे स्त्री हो या पुरुष। बरसों हमने इसी के सामने खड़े होकर घंटों कंघी-पटी की है। आत्ममुग्ध होकर खुद को निहारा है। और यह है हमारे पिता जी की राईटिंग टेबल। बहुत बड़ी है न। टेबल लैंप भी है। जाने इसकी रौशनी में रात-रात भर बैठ कर पिताजी ने क्या-क्या लिखा? जब उनको साहित्य अकादमी अवार्ड मिला था तो कई दिन तक इसी टेबुल पर सजा रहा।
और किताबों का अथाह भंडार। इसके अलावा भी बहुत कुछ। लेकिन धीरे-धीरे सब गायब होने लगा। शाम जब मैं ऑफिस से लौट कर आता तो घर खाली खाली सा दिखता। राईटिंग टेबुल गयी। सफ़ाई दी गयी कि इसकी एक टांग गल गयी थी और फिर चूहों ने इसकी दराज़ में घर बना लिया था। खून का घूंट पीकर रह गया। फिर एक शाम लौटा तो श्रृंगार मेज़ गायब मिली। एक शाम पुराने फ्रिज की जगह नया फ्रिज दिखा। किताबें भी धीरे-धीरे कम होने लगीं। कोई मांग कर ले गया तो कोई.
बहुत लंबी फ़ेहरिस्त है। गिनाने बैठूंगा तो मेरी आंखों से गंगा-जमुना बह निकलेगी। हर बार एक ही स्पष्टीकरण कि पुराना जायेगा तभी तो नया आयेगा। इससे पहले कि किताबें साफ़ हो जातीं, मैंने खुद ही इन्हें करामात हुसैन गर्ल्स डिग्री कॉलेज को गिफ़्ट कर दीं, जहां उर्दू की तालीम का प्रोवीज़न था। थ्री-पीस सोफ़ा और किताबों की रेक जैसे-तैसे अपने कब्ज़े में करके अपने छोटे से कमरे में ठूंस ली।
इस सोफ़े को १९७० में लाये थे पिताजी। तबसे तीन बार मरम्मत हो चुकी है इसकी। पिछली बार १२-१३ साल पहले बना था। रैक्सीन की जगह लाल कपड़े का कवर चढ़ा दिया गया। हमारा घर पार्क के किनारे है। दिन भर बच्चे ऊधम मचाने के साथ साथ गर्द-गुबार उड़ाते हैं। हर दूसरे-तीसरे दिन सफ़ाई करते है हम। वैक्यूम क्लीनर भी है। लेकिन सब नाकाफ़ी रहा। ऊपर से हमें एलर्जी। डॉक्टर ने मना किया है धूल-धक्कड़ और धुएं से बचो।
घर के बॉर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स और दोस्तों-हमदर्दों ने सलाह दी- बेच डालो और नया ले लो। हिसाब किताब भी बताया-समझाया गया हमें। पुराना मरम्मत कराने से बेहतर रहेगा।

लेकिन हम अडिग रहे - दिवंगत पिताजी की हमारे अलावा आख़िरी कुछ निशानियों में से एक है यह नायाब यह सोफ़ा। नायाब इसलिये कि एक से बढ़ कर एक साहित्यिक हस्तियां बैठीं हैं इस पर -
कृष्ण चंदर, राजेंद्र सिंह बेदी, श्रीलाल शुक्ल, इस्मत चुग़ताई, मुद्रा जी, कामतानाथ, अहमद फ़राज़, जॉन एलिया, वाजिदा तबस्सुम, केपी सक्सेना, लीलाधर जगूड़ी, वीरेंद्र यादव, राकेश,शक़ील सिद्दीकी, अखिलेश बहुत लंबी फ़ेहरिस्त है जनाब। नहीं जाने देंगे इस सोफ़े को, भले मरम्मत हमें कितनी ही महंगी क्यों न पड़े। कल हमने इस पर रैक्सीन चढ़वा ली। तय दाम से पांच सौ रुपये ज्यादा इसलिए दिए कि बनाने वाले ने एक ही दिन में तैयार कर दिया। सुबह आठ बजे से रात दस बजे तक उसकी टीम लगातार काम करती रही।
एक साहब ने सुबह सुबह नाक-भौं सिकोड़ी  - यह रंग क्यों लिया? इसपर धूल चमकेगी।
हमने कहा - धूल दिखनी चाहिए। तभी तो रोज़ के रोज़ साफ़ करेंगे। दिखेगी नहीं तो आप ही के वस्त्र मैले होंगे।
बहरहाल, हम दिल से खुश हैं। यक़ीनन हमारे दिवंगत पिता को आत्मा भी प्रसन्न होगी।
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२०-११-२०१५ mob 7505663626
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